शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

ललक.............

दो नन्ही गौरैयों ने देख
लिया अम्बर ज्यों ही,
जिज्ञासा की डोर बंधी,
उड़ चलीं गगन के पार कहीं,
लिखने जीवन की नई कहानी,
क्षितिज पार जाने की ठानी,
गीत बहारों का गाती वो,
पंख हिलाते फड़काती वो,
नीड़ रेशमी छोड़ दिया फिर,
कौंधी बिजली आइ घटा घिर,
पर उल्लास ह्रदय भर अपने,
चलीं ख्वाब सब पूरे करने,
नैनों में आशा के कण थे,
यही ज़िंदगी के वो क्षण थे,
कलियों ने मौसम तौला था,
खुशबू से तन मन डोला था,
लेकिन विधिना की पाती मे,
छिपा ना जाने क्या माटी में,
दूर बहुत ही देर तलक,
उड़ती जाती बढ़ती थी ललक,
अब थकन से दोनो चूर हुई,
अपनों से भी वो दूर हुई,
दिन कटते थे अलग अलग,
रातें कटती थी बिलख बिलख,
पर सपने उनके चुके ना थे,
इसलिये कदम भी रुके ना थे,
हर रोज़ नया आयाम लिये,
आती थी भोर पयाम लिये,
लेकिन यादें तड़पाती थी,
हंसते रोते आ जाती थीं,
अब सही ना जाती थी दूरी,
घर में सब इच्छा  हो पूरी,
ये ठान लिया भीतर मन के,
बज उठे राग सब जीवन के,
उड़ चली व्योम भर पंखों में,
ध्वनि मचल उठी सब शंखों में,
सनन सनन गति बढ़ती थी,
आगे बढ़ने को लड़ती थी,
दोनों ने नज़रें दौड़ाई,
दिख गई नीड़ की परछाईं,
लिपट गईं मन प्यार भरे,
खूब नैनों से उद्गार झरे,
वृक्ष भी हर्षित डोल उठे,
बागों के भंवरे बोल उठे,
मत करना फिर से नादानी,
अब करो खतम तुम मनमानी।

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