शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मै ना बोलुँगा....

धीरज धरम मित्र - धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपति काल परखिये चारी.........हे इन पंक्तियों के महान रचयिता कहाँ हो...? रक्षा रक्षा करो....
पुकारते पुकारते थक गया हूँ..लेकिन हम लेखक द्वय को   धीरज के साथ धरम को मानते हुए अर्सा हो चला है....इस अर्से में मित्रों ने देख कर भी अनदेखा करना शुरू कर दिया....कइयों नें तो ये भी अपने चपरासी से कहलवा दिया कि,साहब ऑफिस से लैप्स है और लैपी बाँटने गये हैं.....अंतिम उम्मीद नारी से थी....पर नारी की गारी सुन कर लेखनी की पूरी स्याही सूख गई.....भला हो नुक्कड़ के पनवाड़ी का जिसने बिल्कुल सटीक सलाह दी.....बिल्कुल मोहन भागवत वाले अंदाज़ में जो आडवानी को दी गई थी.....उसकी बात मेरे भी समझ में आई.....पुलिस धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ रही थी और मैं वकीलों को फोन घुमाने में लगा था....किस्मत की बलिहारी....कोई वकील लेखक का केस लड़ने को राजी नहीं हुआ....हर दरवाजा खटखटाने के बाद.....हार मान कर फिर उसी पनवाड़ी की शरण में पंहुँचा....हाँथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा....हे मुख शुद्धी कारक व्यवसायि....रक्षा करो रक्षा करो....अब तक पनवाड़ी की समझ में सब आ चुका था....धीर गम्भीर कुटिल मुद्रा बना कर पान चबाते हुए कहा....शांत हो जाओ वत्स.....मुझे पता है....तुम सरकार से हो चुके हो त्रस्त....किंतु सरकार भी क्या करे.....अपना वोट बैंक बचाते बचाते हो गई है पस्त....अब आखिरी में बचते हैं हम...हमको देखो....रहते हैं हर समय मस्त....मेरी दुकान पर आए हो तो हर कष्ट से बचाउँगा...
पुलिस हो या पहलवान दिन में तारे दिखाउँगा...
मैने कहा- भाई अब तो तुम्ही आखिरी उम्मीद हो...खैर पनवाड़ी की कृपा से जमानत हो चुकी है...लेखनी की जगह सरौता पकड़ना सीख रहा हूँ.....क्यो कि, बेबाक लेखन की मुसीबत झेलने के बाद....पनवाड़ी का पॉवर अच्छी तरह देख रहा हूँ.....
अंत में यही कहुँगा-बच जाते जो जलती आग में हाँथ सेंका नहीं होता,
क्योकि- लेखकिय जमात में कभी एका नही होता।