शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

कुछ इधर की कुछ उधर की....

कल चेहरों की पुस्तक के माध्यम से थोड़ी देर के लिए अपने साहब श्री अनूप शुक्ला जी से वार्तालाप करने का सुयोग प्राप्त हुआ, मै तो ऐसे अवसरों को रिश्वत की तरह ही मानता हूँ क्यों की रिश्वत भी हर् ऐरे गैरे को नहीं मिलती,
एरों में तो हम पहले भी कभी नहीं रहे और गैर मै स्वयं को मानने से इंकार करता हूँ,
बात करने की कला भी अब अबला नहीं रही काफी परिष्कृत हो चुकी है और इसी परिष्कृत कला का परिचय साहब से बात करते समय मुझे प्राप्त हुआ, हो सकता है ये मेरी अज्ञानता हो या उनकी अत्यधिक व्यस्तता के कारण मुझे ऐसा लगा और जो कुछ भी मुझे लगा उसे मै यहाँ टीपे दे रहा हूँ,क्यों की इतने अदम्य साहस को प्रदर्शित करने की छमता मेरे भीतर नहीं है की जो कुछ मै यहाँ लिख रहा हूँ उसे अपने जबड़े से साहब के सामने निकाल सकूँ, इसलिए वार्तालाप का आंशिक अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ,
मै:-सर जी नमस्ते
 सर:- नमस्ते
सर:- क्या हाल है
मै:- सब आपका आशीर्वाद है
सर:- कुछ नया नहीं लिखा
मै:- कुछ दिनों से अत्यधिक व्यस्त था इस कारण से नहीं लिख सका
सर:- ठीक
मै:- जल्दी ही लिखूंगा
सर:- सही
मै:- अगर आप व्यस्त हों तो मुझे छमा करें
सर:- ठीक
मै:- आपने तो मुझे बहुतखूब समझाया परन्तु बहुत कुछ मेरी समझ में नहीं आया
सर:- सही
मै:- फिर से उसी सुयोग्य अवसर का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूँ
सर:- ठीक  ..........सर जी ऑफ लाइन हो जाते है
मै:- शुभरात्रि सर जी
सर:- शुभरात्रि...
लिखना तो बहुत कुछ चाहता था किन्तु,
केस्को की कृपा से अंधेर हो गई है इसलिए बांकी फिर कभी.........