रविवार, 6 सितंबर 2015

मुक्तक जैसा कुछ..

किस से सीखू मैं खुदा की बंदगी,
सब लोग खुदा के बँटवारे किए बैठे है,
जो लोग कहते है खुदा कण कण में है,
वही मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे लिए बैठे हैं !

मेरे हौसले को देख मेरे जज़्बात को ना देख,
मेरी बादशाही देख मेरे हालात को ना देख,
तपा कर रूह को अपनी ये इश्क ए जाम पाया है,
मेरे हिस्से में रंज ओ ग़म यही ईनाम आया है,
रही है बस यही दौलत मेरे दिल के खजाने में,
के तेरे ही नाम के पीछे मेरा भी नाम आया है,

गांव छोड़ के शहर आया था,

फिक्र वहां भी थी फिक्र यहां भी है।

वहां तो सिर्फ 'फसलें' ही खतरे में थीं

यहां तो पूरी 'नस्लें' ही खतरे में है

दिल पे लिखने का हुनर मुझको बता देते,
आप सिखाते मैं न समझता तो सज़ा देते,
हर जगह आज़माया है हाँथ मेरे बुजुर्गों ने,
काश़ मेरे लिखने के लिये कुछ तो बचा देते।

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