मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

भावना पत्र...

आदरणीय सर जी, कृपया मेरे अंतर्मन की भावनाओं को समझें और यदि हो सके तो मेरी शंकाओं का निवारण करने की कृपा करें..


जैसे ही समाप्त हुआ सत्र,
लिख डाला मैंने गुरू जी को भावना पत्र,
आदरणीय सर जी महोदय,
हिन्दी साहित्य के शब्द नवोदय,
मेरी आपसे याचना है,
ये जो मार्च महीने की यातना है,
कम से कम मुझे ना मिले,
क्योंकि करने होते है मुझे आपसे बहुत सारे गिले,
पर इस महीने आप रहते हो अत्यधिक व्यस्त,
मै सवालों के चक्रव्यूह में फंस कर हो जाता हूँ त्रस्त,
मै समझता हूँ आपकी मजबूरी,
दिल से ना सही पर हो ही जाती है अपनों से दूरी,
याद दिला रहा हूँ आपको किया हुआ वादा,
हो सकता है आपकी स्मरण शक्ति हो कम या ज्यादा,
आपके अलावा जब मेरे पास नही था अन्य कोई विकल्प,
तब अप्रैल में सहायता करने का आपने लिया था संकल्प,
अब अप्रैल भी आधे से अधिक गया है बीत,
और अधूरा है आज भी हमारा वो गीत,
बड़ी हसरतों के साथ जो हमने आप को भेजा था,
पर ना जाने कहाँ से आ मरा ये तनेजा था,
जिसने आपके द्वारा प्रसिद्धि पा ली,
भले ही दिल और दिमाग दोनों से था खाली,
आप तो व्यस्त हो मै हो रहा हूँ बोर,
मेरा भी मन करता है लिख दूँ तनेजा है चोर,
पर रोक देते है हाँथ मेरे संस्कार,
आप की दी हुई शिक्षा मत करना अहंकार,
तभी तो जीवित है तनेजा जैसे जंतु,
मै फिर से लिखने लग जाता हूँ वही किन्तु परन्तु,
आप तो भोले हो आप का ह्रदय है उदार,
पहली बार देखा किसी ब्लॉगर के इतने गंदे विचार,
क्षमा करें कुछ गंदगी में अटक गया था,
अपने विषय से भटक गया था,
मैंने तो कर लिया है पक्का इरादा,
करना होगा पूरा आपको अपना वादा,
लाईट जा चुकी है अधिक हो गई है रात,
आपके चरण स्पर्श के साथ समाप्त करता हूँ बात,
स्पष्टवादी हूँ विचार है साफ़ साफ़,
गलतियों के लिए कर दीजियेगा माफ,
अशीर्वादाकंशी उज्वल हो मेरा भविष्य,
राजेन्द्र अवस्थी (कांड)आपका सेवक आपका शिष्य,