शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

बंधन


अब कसे बन्धन हम खोलते कहाँ हैं,
सह गए सब सितम कुछ भी बोलते कहाँ हैं,
कम हो या के ज्यादा प्रेम तो प्रेम है,
बन्द पलकों से कुछ भी हम तोलते कहाँ है
जब से चली है आँधी लूटमार की,
अरगनी के कपड़े भी अब डोलते कहाँ है,
पीने को मिलता नही पानी यहाँ पर,
फिर भी रक्त के कण अब खौलते कहाँ हैं,
सुनते है हो के मौन अपशब्द राह में,
दहाड़ सिंह सी कण्ठ मे घोलते कहाँ हैं,
सहिष्णुता भी अब लगा दी हमने दाँव पर,
स्नेह,प्रेम,भाईचारा जैसी दौलते कहाँ हैं,
भरी है कूट कूट कर निठुराई ज़हन मे,
संग सांस लेने की भी अब मोहलते कहाँ हैं,

बुधवार, 29 अगस्त 2012

छाया मेरी परमात्मा,


शांत निर्मल स्निग्ध छाया,
निश्छल निस्वार्थ निर्लेप पाया,
रहती मेरे ही सहारे,
मै हँसू तो दिल वो हारे,
जब गमों का साथ होता,
छाया का संताप रोता,
वख्त कुछ मै चिढ़ गया,
छाया से इकदम भिड़ गया,
प्रतिरूप क्यों मेरा बनाती,
साथ प्रतिपल क्यों निभाती,
छोड़ दो कुछ पल अकेला,
छाँट दो भ्रम का ये मेला,
मै हूँ जब तक तुम भी हो,
और साथ मेरे गुम सी हो,
मौन ही छाया रही,
स्तब्ध सी काया रही,
फिर मै समर्पित हो गया,
छाया को अर्पित हो गया,
बैठा हूँ अब छाया लिये,
रोशनी का क्षय किये,
दिन की दरिया छोड़ दी,
रात्रि से लौ जोड़ दी,
दिन है कैसा दिन कहो,
ऐसे दिन मे तुम रहो,
जिस दिन में छाया हो विलग,
उस दिन से रहता मै सजग,
तो रात्रि है दिन से भली,
है साथ छाया बावली,
छाया है मेरी आत्मा,
छाया मेरी परमात्मा,

रविवार, 26 अगस्त 2012

काली दलाली



निष्ठा और  ईमानदारी कोयले सी काली है,
इसीलिये प्यारी मुझे काली घरवाली है,
कजरारे नैनों की कंटीली सी दुनाली है,
चर्चा में मित्रों आज कोयले की दलाली है,
श्वेत श्याम नहीं कुछ श्याम श्याम खाली है,
 श्वेत खादी रोती आज संसद भी काली है,
घृणा करते है आज राजनीति से सभी,
भ्रष्ट नेताओं के कारण नेता शब्द गाली है,
भ्रष्टाचार लूटमार घोटालों की मची धूम,
भारत वर्ष बन गया किन्नर की ताली है,
जैसे चाहो वैसे काटो देश केक बन गया,
देसीघी के साथ मे विदेशी क्रीम डाली है,
हवा उल्टी दिशा से देखो आज चल रही,
बगिया उजाड़ रहा बगिया का माली है,
चहूँ ओर घोटालो की छाई आज घटा काली,
कान्हा अब राखो लाज रोवत सवाली है,

शनिवार, 25 अगस्त 2012

प्रेम अगन


मन भीतर की प्रेम अगन तुम कैसे कहो बुझाऊं मैं
राधा राधा कहते कहते क्या कान्हा बन जाऊँ मैं,                                              तान सुरीली धड़कन वाली कम्पित झंकृत होती है,
लाल सुनहरे हरे बैंगनी रंग नयन मे बोती है,
तुम नयना नीचे कर लेती मौन हो क्या समझाऊँ मैं,
मन भीतर की प्रेम अगन तुम कैसे कहो बुझाऊं मैं,
राधा राधा कहते कहते क्या कान्हा बन जाऊँ मैं,
बीती ऋत सावन की फिर भी कोयल गीत सुनाती है,
तेरे मेरे प्रेम की वीणा निशदिन मधुर बजाती है,
तुम भी सुन लो प्रेम रागिनी क्या कोयल बन गाऊँ मैं,
प्रेम अगन
मन भीतर की प्रेम अगन तुम कैसे कहो बुझाऊं मै,
राधा राधा कहते कहते क्या कान्हा बन जाऊँ मैं,
बिजुरी तड़प रही विरहन सी घटा ह्रदय पर छाई है,
हरे विधाता जतन करो कुछ कैसी अगन लगाई है,
प्रेम अनल निर्मल सब कहते फिर क्या मलय लगाऊँ मैं,
मन भीतर की प्रेम अगन तुम कैसे कहो बुझाऊं मैं,
राधा राधा कहते कहते क्या कान्हा बन जाऊँ मैं,