सुबह गुज़री उम्र बीती साँझ भरमाने लगी है,
पलक भी बोझिल हुई नींद अब आने लगी है,
हूँ गगन से दूर फिर भी रात आँखो मे बसी है,
मस्त सावन की हवा भी लोरियाँ गाने लगी है,
पलक मूँदू जैसे ही मैं ख्वाब में वो हमनशीं है,
चाँदनी की चमक से मदहोशियाँ छाने लगी हैं,
तितलियों का रंग देखा उनके मुखड़े पर हँसी है
हर कली भी शाख पे मदमस्त लहराने लगी है,
किंतु सब कुछ छोड़ कर वासना की चाहना में,
रिक्त सी हर शै ज़मी की घर युँ ही जाने लगी है,
सुरभि संदल की उड़ी औ मंत्र उच्चारण हुआ है,
मुक्ति की उम्मीद में हर लाश अँगड़ाने लगी है,
कह रह हूँ "राज" सबसे अब सुनो या ना सुनो,
गीत अंतिम है ये मेरा मृत्यु अब भाने लगी है,
सुबह गुज़री उम्र बीती साँझ भरमाने लगी है,
पलक भी बोझिल हुई नींद अब आने लगी है,
राजेन्द्र अवस्थी....