मंगलवार, 17 मार्च 2015

आज का जीना..

वो डरता है अपनी बड़ी होती बच्ची को देख कर..
या यूँ कहें कि वो डरता है औरत देख कर,
अकेला छोड़ कर जब भी वो बाहर जाता हैं,
साथ ले कर जाता हैं सिर्फ डर,
घर में रह जाती है अकेली,
बच्चियों के साथ,
कलमा पढ़ती आरज़ू,
उसके घर से निकलते ही,
जां नमाज़ बिछ जाती है,
बच्चियाँ भी बैठ जाती हैं पास में,
आँगन में कोई चिडिया भी,
सरगोश़ी करती है,
तो उसे ताला बंद मिलता है दरवाजे पर,
कोई झरोखा नहीं,
जिससे आरज़ू को रोशनी दिख जाये,
बच्चियों को भी रोशनी चाहिये,
बच्चियाँ चुपचाप देखती रहती हैं,
कलमा पढ़ती अम्मी को,
कोई शरारती सिपाही,
ताले को हिला देता है,
जोर से,
कि शायद कोई चीख़,
सुनाई दे जाये उसे,
कमरे में बच्चियों का मुँह,
गोद में छुपा लेती है आरज़ू,
मेरे मौला मेरे मालिक,
आवाज़ सुनती हैं बच्चियाँ,
सीख जाती हैं बच्चियाँ,
अपना सिर ढापना,
खाना बनाना,
बर्तन धोना,
चुपचाप अँधेरे कमरे में रहना,
और इंतज़ार करना अब्बा का,
ताला खुलने की आवाज़,
धड़कन रोक देती है,
साँस भूल जाती है भूँख भी,
जल्दी से अंदर आ कर,
अब्बास खुश हो लेता है,
आज के लिये जीना हो गया।