शनिवार, 7 दिसंबर 2013

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता

संवेदना की उठ चुकी अर्थी यहाँ पर,
भावना पर बर्फ जमती है यहाँ पर,
ईमान की सूरत यहाँ बिगड़ी हुई है,
सत्यता भी रोज मरती है यहाँ पर।
विद्वता की है यहाँ भरमार भाई,
बलात्कारी बन प्रतिष्ठा है गंवाई,
पर नज़र का नीर तो सूखा हुआ है,
सरलता से फिर कोई धोखा हुआ है,
बेइमानी की फसल बेजोड़ होती,
कठिनाइयाँ हल से बराबर होड़ लेती,
आओ कर लें फिर से चर्चा दामिनी पर,
या उछालें लांछन किसी मानिनी पर,
जागरुकता का भी परिचय दे ही डालें,
बाण तरकश से नया कोई निकालें,
छेद डालें फिर किसी मुनिया की छाती,
हम सम्हाले फिर रहे संस्कृति की थाती,
हम ही ठेकेदार हैं सगरी धरा के,
मृत्यु,मुर्छा,जीविता,जड़ता,जरा के,
देखता हूँ बचपने से बातें बनते,
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र देवता रमन्ते,
देवता अब बस मिले हैं मूर्तियों में,
पुजारी भी रमें हैं कुत्सित पूर्तियों में,
अब नहीं होता यहाँ नारी का पूजन,
मशतिष्क में रहता है कुत्सित ही प्रयोजन,
इसलिये हे नारियों अब तुम ना मानों,
जंग लड़ने की ह्रदय में नेक ठानो,
तुम जगतमाता हो जननी भी तुम्ही हो,
तुम ही पुत्री प्रेमिका भगिनी तुम्ही हो,
सर्वशक्तिमान हो अभिमान हो तुम,
माँ भारती का उचित स्वाभिमान हो तुम,

सोमवार, 25 नवंबर 2013

निर्दोष-दोषी

किंतु किसी भी कहानी  को आखिर बिना प्रमाण के कैसे सच मान लिया जाय.?
तमाम महिलाओं की संवेदना को इस दुर्दांत घटना ने झंझोड़ा होगा..
गलतियाँ इंसानों से ही होती  हैं मै मानता हूँ कि, तलवार दंपत्ति ने अपनी बच्ची को नौकर के भरोसे छोड़ा और अपनी दुनियाँ में मस्त रहे..ये उनकी बहुत बड़ी गलती थी..किंतु आप स्वयं सोंचे कि क्या कोई माँ बाप अपने बच्चे का कत्ल सिर्फ इस बिना पर कर सकते हैं कि उनके संज्ञान में कुछ ऐसा आ गया था जो सामाजिक दृष्टिकोण से अनैतिक था?
जहाँ तक मैं समझता हूँ कि, हत्यारे का अभी तक पता ना चलना सरासर सी.बी.आई. की विफलता है...और अपनी विफलता ना स्वीकारते हुए...तलवार दंपत्ति को बली का बकरा बना दिया..कितनी भी बड़ी गलती हो...नौकर की हत्या और अपनी संतान की हत्या करने में बड़ा अंतर है..
यदि ऐसा भी मान लिया जाय कि लड़की के स्थान पर अगर लड़का होता और नौकर की जगह नौकरानी होती तो निश्चित ही नौकरानी को दोषीलमान लिया गया होता क्योंकि, हमारा सामाजिक तानाबाना औरत को केंन्द्र में रख कर बुना गया है..
आखिर दूसरी बार की जाँच में ऐसा क्या नवीन सूत्र सी.बी.आई. के हाँथ आ गया कि, तलवार दंपत्ति को दोषी करार दे दिया? मैं किसी का समर्थन नहीं करता और उस कानून पर भरोसा करता हूँ जो कहता है कि, चाहे हजार दोषी छूट जाँय लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिये।

शनिवार, 23 नवंबर 2013

अधूरा इंसान

हमारे यहां आपस में सिर्फ बच्चे बोलते हैं,
बड़ों को फुरसत नहीं है,
फुरसत भी है तो मोहलत नही है,
दिलो मे मोहब्बत कि शोखी नही है,
और हमने भी मूक विजय अभी तक देखी नही है,
जीत का जज़्बा ह्रदय में भरा है,
घ्रड़ा के बीज से नफ़रत का वृक्ष हरा है,
गुज़री है अब तक,
उमर तो गुजरती ही रहेगी,
दिलों में नफ़रत भी रहेगी,
प्यार का अहसास अब रातों की बात हैं,
बडी ही अजीब इंसानों की जात है,
प्रवचन देते बड़े बड़े,
पर घर में भी सब मरें लड़ें,
दिखावों में जीना ही नसीब है,
जो दिखावे से दूर वो ही गरीब है,
अमीरी चाहता हर कोई है,
न जाने कहाँ इंसानियत सोई है,
जानवर थे हम,
ज़रूरतों ने इंसा बनाया,
इंसा बने हम तब ज़रूरतों ने ही हैवान बना दिया,
अब तो ज़रूरत बन चुकी है नफरत,
क्या इंसानियत मे ही है कुछ गफ़लत,
हम तो जानवर भी नही हैं,
ना ही बन सके इंसान,
दिखावा किया इंसान का,
और बने रहे हैवान,
काश़ कि सभी हैवान ही होते,
एक दूसरे के लिये शायद हैवान भी रोते,
आज हम आधे अधूरे इंसान ना होते।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

हक का महीना... حق کا مہینہ


हिंदुस्तान के कुछ ब्राह्मणों का मानना है कि जब उन्हें यज़ीद और हुसैन के बीच घटित होने वाली लड़ाई की खबर मिली तो ब्राह्मणों के एक गिरोह ने हिंदुस्तान से इराक़ की ज़मीन की तरफ़ कूच किया ताकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद कर सकें।
जब यह लोग इराक़ की ज़मीन पर पहुंचे तो कर्बला की दर्दनाक घटना हो चुकी थी और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके जान निछावर करने वाले साथी अपनी जान निसार कर शहीद हो चुके थे। यह ब्राह्मण गिरोह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून का बदला लेने के लिए कूफ़े में मुख़्तार के सिपाहियों से जुड़ गया और सभी लोग मुख़्तार सक़फ़ी के साथ जंग में शामिल होकर शहीद हो गये। हिंदुस्तान में इन बृाम्हणों ने अलैहिस्सलाम की याद में अज़ादारी शुरू कर दी और  मुहर्रम के दिनों में ख़ास अंदाज़ में मजलिस, मातम और नौहा और मर्सिये का आयोजन करते हैं और हिन्दी, संस्कृति, पंजाबी उर्दू और कश्मीरी आदि में नौहा और मर्सिया के शेर लिखते हैं।

असरार नसीमी का ये शेर देखे...
'वाकिफ-ए-मर्जी-ए-रब थे नहीं मांगा पानी,
   वर्ना जब चाहते ठोकर से निकलता पानी,

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

सच तो सच है

किसी अति चर्चित व्यक्ति के निजी जीवन के बारे में चर्चा करना या किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन पर बात करना क्या अपराध है?

वैसे इन दिनों ऐसा वृहदस्तर पर हो रहा है...

पहले मोदी क्या थे?
सोनिया क्या थीं?
मनमोहन सिंह के गाँव का नाम क्या है?
रॉबर्ट वाड्रा का व्यापार क्या है?
मोदी और राहुल ने शादी नहीं की तो क्यों नहीं की?
राबड़ी देवी ने छठपूजा कैसे की? आदि....

तो फिर चर्चा हो किस बात पर? हमारे ग्रंथ पुराण भी देवों की व्यक्तिगत चर्चा से भरे हुए हैं.....प्रकाण्ड साहित्यकारों का जीवनवृत्त पर भी चर्चा होती ही रहती है...
इन दिनों राजनैतिक दलों के बुद्धिमान नेता एक दूसरे पर नितांत निजी आक्षेप लगाने से भी नहीं चूक रहे हैं..
अमर्त्यसेन ने मोदी के खिलाफ क्या बोला कि, विद्वान जगत के लोगों ने उनकी पुत्री के चरित्र को रुई की तरह धुन डाला..
क्या जब लोगों की भावनायें आहत होती हैं तो एक मात्र अस्त्र चारित्रिक कुठाराघात ही विजय दिलाता है?

फिर भी ये जारी है.....क्या जो बीत गया उस पर चर्चा करना  व्यर्थ है? तो फिर इतिहास क्या है?
सदियों से हम दावा करते आये हैं कि, हमारा देश ऋषिमुनियों योगियों,ज्ञानियों ध्यानियों का देश है...हम समुन्नत सभ्यता और सर्वगुण सम्पन्न सांस्कृतिक विरासत को सम्हाले हुए विश्व गुरू बनने का दावा प्रस्तुत कर रहे हैं....तो क्या अपने समाज को हम विकसित समाज कह सकते हैं?
अधिकांश हिंदू परिवारों में पर्दा प्रथा को बड़ों को सम्मान देने के नजरिये से देखा जाता है....
बड़ों में क्या सिर्फ पुरुष वर्ग ही आता है? क्यों कि सासू माँ से तो किसी ने पर्दा किया ही नहीं!  तो फिर सासू माँ को स्वयं को अपमानित महसूस करना चाहिये!
बाल विवाह आज भी देश में रुका नहीं है,
देश में आधी आबादी का शोषण लगातार सदियों से जारी है, अक्सर चर्चा होती है...इसका लाभ भी मिला है फिर भी क्या वर्तमान स्थिति संतोषजनक कही जा सकती है?
देश में इन दिनों बलात्कारों की बाढ़ सी आई हुई है..
और अब तो स्थिति इतनी अधिक भयावह हो चली है कि, धर्म गुरुओं पर भी विश्वास करना मूर्खता कहाने लगा है...
बुद्धिमत्ता तो अज्ञान के अंधकार को मिटाती है फिर ये कैसा संदेश दिया जा रहा है हमारी आने वाली नई पीढ़ी को?
अमर क्रांतिकारी कवि अदम गोंडवी जी की ये पंक्तियाँ  आज भी सच्चाई का आइना समाज को दिखा रही हैं!

"वो जिसके हाँथों  में छाले और पैरों में बिवाई है,
उन्ही के दम से ये रौनक आपके बँगलों में आई है"

"काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है रामराज्य विधायक निवास में"

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे,
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।

प्रस्तुत पंक्तियों में समाज की कड़वी हकीकत को बयाँ किया गया है....और आज यदि इन्ही बातों को चर्चा में शामिल किया जाता है तो इनके अनगिनत समर्थक अभद्र शाब्दिक गोले दनादन दागने लगते हैं.....वाह री उन्नत सभ्यता...
हाय रे विकसित समाज....

मेरा व्यक्तिगत विचार ये है कि, किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन  पर चर्चा करना निसंदेह अनैतिकता की श्रेणी में आता है।

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

कैद में राम

प्यार की नज़रों का उतार देखिये,
हर घर में रिश्ता बीमार देखिये,

खुशियों के आँसू हज़ार दिखेंगे,
अब उन्ही आँसुओं का व्यापार देखिये,

जिंदगी  भी ना रही खाते में अपन के,
मौत की सूरत भी अब खूंखार  देखिये,

बैैठे थे लेकर कफन सेहरा समझ कऱ
अब सर भी नही रहा ये रार देखिये,

कैद राम हो गये रामायन में अब,
शहर में अब रावन हजार देखिये,

धुरंधरों ने धर्म को धंधा बना दिया,
हर डगर पे लग चुके पंडाल देखिये,

मरते हो तो मर जाओ उनकी बला से,
जाम बना आम है त्योहार देखिये।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

मै ना बोलुँगा....

धीरज धरम मित्र - धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपति काल परखिये चारी.........हे इन पंक्तियों के महान रचयिता कहाँ हो...? रक्षा रक्षा करो....
पुकारते पुकारते थक गया हूँ..लेकिन हम लेखक द्वय को   धीरज के साथ धरम को मानते हुए अर्सा हो चला है....इस अर्से में मित्रों ने देख कर भी अनदेखा करना शुरू कर दिया....कइयों नें तो ये भी अपने चपरासी से कहलवा दिया कि,साहब ऑफिस से लैप्स है और लैपी बाँटने गये हैं.....अंतिम उम्मीद नारी से थी....पर नारी की गारी सुन कर लेखनी की पूरी स्याही सूख गई.....भला हो नुक्कड़ के पनवाड़ी का जिसने बिल्कुल सटीक सलाह दी.....बिल्कुल मोहन भागवत वाले अंदाज़ में जो आडवानी को दी गई थी.....उसकी बात मेरे भी समझ में आई.....पुलिस धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ रही थी और मैं वकीलों को फोन घुमाने में लगा था....किस्मत की बलिहारी....कोई वकील लेखक का केस लड़ने को राजी नहीं हुआ....हर दरवाजा खटखटाने के बाद.....हार मान कर फिर उसी पनवाड़ी की शरण में पंहुँचा....हाँथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा....हे मुख शुद्धी कारक व्यवसायि....रक्षा करो रक्षा करो....अब तक पनवाड़ी की समझ में सब आ चुका था....धीर गम्भीर कुटिल मुद्रा बना कर पान चबाते हुए कहा....शांत हो जाओ वत्स.....मुझे पता है....तुम सरकार से हो चुके हो त्रस्त....किंतु सरकार भी क्या करे.....अपना वोट बैंक बचाते बचाते हो गई है पस्त....अब आखिरी में बचते हैं हम...हमको देखो....रहते हैं हर समय मस्त....मेरी दुकान पर आए हो तो हर कष्ट से बचाउँगा...
पुलिस हो या पहलवान दिन में तारे दिखाउँगा...
मैने कहा- भाई अब तो तुम्ही आखिरी उम्मीद हो...खैर पनवाड़ी की कृपा से जमानत हो चुकी है...लेखनी की जगह सरौता पकड़ना सीख रहा हूँ.....क्यो कि, बेबाक लेखन की मुसीबत झेलने के बाद....पनवाड़ी का पॉवर अच्छी तरह देख रहा हूँ.....
अंत में यही कहुँगा-बच जाते जो जलती आग में हाँथ सेंका नहीं होता,
क्योकि- लेखकिय जमात में कभी एका नही होता।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

मीठा माहुर.

भूख से लड़ कर भी कैसे मौत कोई रोक ले,
मुनिया की अंतड़ियों को गर सरकार यूँ ही नोच ले,
क्यूँ रहे देता दुहाई नियम और कानून की,
ना गिरा बूंदे जहर की आँख अपनी पोंछ ले।

बहरे शहर में कब तलक चीखेगा यूँ बेसाख्ता,
आँख के अंधे घरों से कैसे कोई झाँकता,
दौड़ कर कैसे उठाते लाश उस मासूम की,
लाश ले अपनी चले मिला जैसा जिसको रास्ता।

सबकी वाणी में यहां पर देखो कैसा ओज है,
कल मरी थी दामिनी और आज कन्या भोज है,
भूख की बातें न कर भूख से बच जाएगा,
खा कर ज़हर स्कूल में अब मरते बच्चे रोज़ हैं।

फिर भी करेंगे गर्व हम खुद पे अपने देश पे,
नाज़ होता ही रहेगा संस्कृति औ परिवेश पे,
मौत चाहे फिर बंटे हर गाँव के स्कूल में,
कल करेंगी पीड़ियां संताप अपने शेष पे।

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

कर्णधार

रोज सब बखिया उधेड़ें देश और आवाम की,
अपराध का अड्डा है संसद गरिमा है बस नाम की,

चुप रहो कुछ कह न देना चुन के आये है सभी,
उसने चुना है इनको जो रोटी ना चुन पाया कभी,

क्या  फरक पड़ता है इनको सिन्नी हो परसाद हो,
इनको है खाने से मतलब मुल्क ये बरबाद हो,

कानून की आँखों पे पट्टी  है बंधी इस देश में,
पिंजरे में घुस बैठी है सीबीआई तोता वेष में,

कटोरा अपना मत छुपा सरकार की नज़रों में है,
देश अलबत्ता भयानक रूप से खतरों में है,

ना जरूरत है चढ़ाने की किसी को शीश के,
जब भी चाहेंगे उतारेंगे वो सर दस बीस के।

सोमवार, 19 अगस्त 2013

केदारनाथ की विभीषिका


गड़ड़ गड़ड़ की ध्वनि सुन कर,
दहल गया सर्वस मेरा,
चीख पुकार मची चँहु दिस,
काँप उठा ज़र्रा ज़र्रा,
पत्थर की बरसात हुई,
घनघोर अंधेरी रात हुई,
जाने कितने घर टूटे,
और जाने कितने,
बह निकले,
ऐसा लगता था जैसे,
पानी से पत्थर पिघले,
प्रलय का था मंजर सारा,
प्रकृति ने था खंजर मारा,
सब चीख चीख कर रोते थे,
अपने अपनो को खोते थे,
ना कोई अपना दिखता था,
बस काल ही किस्मत लिखता था,
भगवान ने भृगुटी की तिरछी,
हर तरफ थी केवल मौत बिछी,
रात सरकती जाती थी,
हर आहट दिल धड़काती थी,
हुई सुबह सब दहल गये,
हो ज़मीदोज सब महल गये,
बस लाशें लाशें लाशें थी,
रुक चुकी सभी की साँसे थीं,
जो जीवन अब भी बाँकी था,
वो लाचारी की झाँकी था,
पर रुके नही थे इंद्र अभी,
जारी जीवन के द्वंद स़भी,
खौफ़ भरा था हर चेहरा,
ईश्वर बन बैठा था बहरा,
शिव बैठे थे शव के ऊपर,
या शव लेटे थे शिव के ऊपर,
तांडव नृत्य हुआ भारी,
तेरी शिव महिमा न्यारी,
नेत्र तीसरा खोल दिया,
पर्वत भी बम शिव बोल दिया,
हाहाकार मचा भारी,
अब त्राहिमाम हे त्रिपुरारी,
त्राहिमाम हैं त्राहिमाम,
मृत्युंजय तुमको है प्रणाम,
बरखा रुकी जगा जीवन,
प्राण बचा भागे सब वन,
आशा ने साथ ना छोड़ा था,
अब भूँख ने नाता जोड़ा था,
पर खाना पानी नही मिला,
ना वहाँ किसी का दिल पिघला,
अब सजी दुकानें लालच की,
पाखंडी लोभी स्वारथ की,
आज कोई ना दानी था,
सौ रुपये में बोतल पानी था,
दूध भी दो  सौ रुपये का था,
हर धंधा अब तो नफ़े का था,
कपटियों का आलम ना पूँछो,
क्या हुआ वहां पर ना पूँछो,
अब बचे रहे तो कह लेंगे,
आगे अब आप भी दहलेंगेे,
जंगल में घना अंधेरा था,
विपदाओं ने घेरा था,
एक माँ थी बेटी साथ लिये,
बैठी थी हाँथ में हाँथ लिये,
दिल धड़क रहा,
मन लरज़ रहा,
अब कलम भी मेरी काँप रही,
होनी विपदा को नाप रही,
दो राक्षस जंगल से  निकले,
मनविकृत बुद्धि से थे छिछले,
हाँथ पकड़ कर बेटी का,
बाल उखाड़ा चोटी का,
वस्त्र भी उसके फ़ाड़ दिये,
माँ चीखी सूखा हाड़ लिये,
कोई तो मदद करो आ कर,
खुद उलझ पड़ी वो चिल्ला कर,
तभी रोशनी एक चमकी,
माता की आँखे दमकी,
रणचंडी सी बनी हुई,
फिर टूट पड़ी वो तनी हुई,
बेटी को माँ ने बचा लिया,
स्वरक्त से मेंहदी रचा लिया,
अब बैठे मिल कर साथ सभी,
बाँकी थी आधी रात अभी,
होंठ सभी के सूखे थे,
सब तीन दिनों से भूखे थे,
आँखों मे रात बिता डाली,
अब चमकी सूरज की लाली,
भेद ना था  कुछ भाषा का,
हुआ सवेरा आशा का,
आ गये बाँकुरे भारत के,
पुतले सब परमारथ के,
वो आ पँहुचे हैं धैर्य धरो,
बस थोड़ा सा तुम सबर करो,
रस्सों का सेतु बना दिया,
खुद को रस्सों पर बिछा दिया,
मानव निर्मित मानव पुल था,
ये भारत का मानव कुल था,
इस पार सभी को ले आये,
जान बचा सब घर आये।

ये रचना अपूर्ण है....इसलिये क्यों कि....जिस पीड़ा को केदारनाथ धाम में फ़ंसे हुये लोगों ने झेला..उसका रंच मात्र भी मैं अपने शब्दों में व्यक्त नही कर पाया हूँ.......
सभी मित्रों से विनम्र निवेदन है कि, प्रस्तुत रचना को कृपया "लाइक" ना करें.......सादर.....सस्नेह....राजेन्द्र अवस्थी।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

मेरा भारत महान

अब तो अझेल ये कांग्रेस राज हो गया,
सस्ता हो गया आदमी मंहगा प्याज हो गया,
कितनी ईमानदारी से करते है बेईमानी देखो,
भ्रष्टाचार में नंबर वन हिन्दुस्तान हो गया,
और बारिश से अब डरने लगे है लोग,
अबकी बरसात में पूरा शहर टाइटेनिक जहाज हो गया,
दुहाई देते है सब इंसानियत की मगर,
न जाने कितने बच्चो का कत्ले आम हो गया,
सुन कर अब तालियाँ मत बजाओ लोगो,
मेरा ये पैगाम भी बदनाम हो गया,
मल्टीमिडिया सेट बच्चे भी रखते है जेब में,
इसीलिए तो मित्रो नेटवर्क जाम हो गया
अब तो स्कूल में होता है बलात्कार,
ये कैसी शिक्षा का प्रचार हो गया,
कटे हांथो से देश की पकडे हो बागडोर,
तभी तो कही संसद भवन कही अक्षरधाम हो गया,
हवाओ में भी यारो घुल रहा है अब जहर,
फिर भी मेरा भारत महान हो गया........फिर भी मेरा...

राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)

ये कैसी आज़ादी

एक बच्ची खड़ी थी तिरंगा लिये हाँथ में,
तन मैला मन उजला फूल झरें हर बात में,
उसे ना थी पता पंद्रह अगस्त की विशेषता,
भावनाओं का उथलापन संवेदना की निशेचता,
मालूम ना था अभी छोटी है,
पुत्र नहीं बेटी है,
है कोई ईश्वर या है कहीं परमात्मा,  बस
तिरंगे के रंग में रंगी थी उसकी आत्मा,
नहीं मालूम था उसे संविधान भी,
टाफी बिस्किट मिलने का प्रावधान भी,
माँ ने सुनाई थी कथा तिरंगे के स्वाभिमान की,
और याद थी दो पंक्तियाँ उसे देश गान की,
झंण्डा ऊँचा रहे हमारा,
विजयी विश्व तिरंगा  प्यारा,
मद्धम स्वर में गाती थी,
तीन रंग एक साथ वो अपने हाँथों से लहराती थी,
तभी लोग चिल्लाये नेता जी आ गये,
नेता जी के साथ आये लोग,
आधे से ज्यादा टाफी बिस्किट खा गये,
जो जिसके हाँथ लगा लोगों ने छाँट लिया,
बचा खुचा सामान आयोजको ने बाँट लिया,
गले पड़े हार हुई पुष्प वर्षा नेता जी फूल गये,
इस आपाधापी में झण्डा लहराना भूल गये,
तभी बोला नेता जी का एक मुस्टंडा,
नेता जी जल्दी में हैं आप खुद फहरा लेना झण्डा,
हम सब के पीछे से झण्डे के नीचे से,
स्वर गूँजा- झण्डा ऊँचा रहे हमारा,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा,
बच्ची ने देश गान जोर से गाया,
उत्साह से लबरेज़ तिरंगा लहराया,
अफसोस ना था उसे खाली हाँथ होने का,
बस उल्लास था ज़मीन में तीन रंग बोने का,
नारंगी टाफी,सफेद बिस्किट,हरी चॉकलेट,
कुछ दिन बाद मिलेगी,
तब शायद माँ भारती के होंठो पर मुस्कान खिलेगी।

"राजेन्द्र अवस्थी"

शनिवार, 11 मई 2013

तेरा आँचल

बहुत रोया हूँ,
जीने के मोड़ पर बैठ कर,
सिसकते हुए पुकारा है कई बार,
कई कई बार, माँ को,
और फिर मैने देखा है,
पनीली आँखों से माँ को,
अपने होंठो पर उंगली रख कर,
मुझे चुप हो जाने का इशारा करते हुए,
तब मुझे ज्ञान नहीं था,
आत्माओं के बारे में,
लेकिन ना जाने क्यों,
वो जीने का मोड़,
माँ की गोद का अहसास कराता था,
और अक्सर ही महसूस होती थी,
माँ की छुअन उस मोड़ पर,
अचानक ना जाने क्या हुआ?
मैं वही हूँ,
जीने का मोड़ भी वही है,
पर माँ नहीं दिखती अब मुझे,
क्या आँखो का पानी मर चुका है?
या मेरी नज़रे कमज़ोर हो चुकी हैं?
या मुझे ज़रूरत नहीं रही माँ की?
या संवेदनशीलता खत्म हो चुकी मेरी?
नहीं नहीं मैं इतना पाषाण ह्रदय नहीं हो सकता,
हाँ शायद मैने विकल्प तलाश लिया है,
माँ का,
हाँ ये सच है,
तुझमें माँ दिखती है मुझे,
मेरे जीवन साथी के रूप में,
आखिर तू भी मुझे कभी रोने नही देती,
हाँ तू माँ है,
ये सच है कि, तू माँ भी है

बुधवार, 8 मई 2013

मुर्दों का मिलन


दो लाशें जीवित हो उठती हैं,
रोज़ रात को बिस्तर के ऊपर,
आलिंगन,
थोड़े से वार्तालाप के बाद,
अनिक्षित प्रेमालाप भी,
रात जितनी काली होती है,
निषिद्ध इच्छाएँ भी बलवती होती हैं,
थके हुए बदन,
टूटे हुए मन के साथ,
बनावटी संवेदना लिये,
गजरती रात में,
रोज मिलते है दो मुर्दे,
इस मिलन के साक्षी हो जाते है,
अनचाहे ही,
तकियों के गिलाफ़,
जो महसूस कर लेते हैं,
आंसुओ के नमकीन स्वाद को,
बिस्तर की चादर पर पड़ी सिलवटें,
देती हैं गवाही,
किसी के पुरुषार्थ की,
कमरे में रक्खी हर चीज़,
आतंकित हो जाती है,
रात के आने के साथ ही,
क्रूरता,लिप्सा,पीड़ा की,
जननी क्यूँ है रात?

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

दरारों से झांकते लोग


जाने क्यूँ दरारों से झाँकते है लोग,
जैसे ही खोलो द्वार दूर भागते हैं लोग,

किवांड़ दिल के खोल कर पूँछा है बारहाँ,
साँसे बची हैं चंद जाँ चाहते है लोग,

गुज़री तमाम उम्र उमरा तलाशते,
दिल भी नहीं है पास तो क्या चाहते है लोग,

परिंदो पर है नज़र सैयाद की मगर,
घोंसलों से ही परवाज़ चाहते हैं लोग,

फुसफुसा के बात करना हक है सभी का,
महफिलों की शम्मा बना चाहते हैं लोग,

भटक रहे हैं सब किसी की तलाश में,
जो मिल नहीं सकता वही चाहते हैं लोग,

फूलों को भी एक बूंद ओस की तलाश है,
खुशबू नही है अब मकरंद चाहते हैं लोग,

सब कर रहे है साबित खुद को खुदा मगर,
काबिल नही हैं फिर भी हुनर चाहते है लोग,

कहना है कुछ अगर तो कहो प्यार से मगर,
खुद लगाई आग में जला चाहते हैं लोग,

राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

माँ तुझे एक बात बतानी है

माँ तुझे एक बात बतानी है 
मैं जान ना सका अब तक,
क्यों तेरी आँखों में रात सिमट आती थी,
बिस्तर की नमी तेरे कपड़ों से लिपट जाती थी,
भले ही अब तू फरिश्ता आसमानी है ,
माँ तुझे एक बात बतानी है ,
देख मेरे लड़खड़ाते कदम,
हर पल तेरा निकलता था दम,
मेरे आँसू जो दिख जाते तुझको,
बारिश तेरी पलकों से उमड़ आती थी,
क्यों दिखती परेशान सी तेरी पेशानी है ,
माँ तुझे एक बात बतानी है ,
तुझे उम्र भी नहीं दिखती अब आँखों से,
बूढ़ा नहीं बड़ा हूँ मैं पर वही प्यार झलकता तेरी बातों से,
माँ मेरे पास तू मेरी अपनी निशानी है ,
माँ तुझे एक बात बतानी है ,
याद नहीं करता तुझको तू सदा साथ है हर पल,
बस एक बार आ उंगली पकड़ मेरी साथ तू ले चल,
है तू ही जागीर मेरी माँ तू ही कहानी है
माँ तुझे एक बात बतानी है ,।

राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)

रविवार, 20 जनवरी 2013

दुनियां छल बल की,

मैंने तो रिश्तों का कौमार्य उतरते देखा,
निज अपनो का व्यवहार बदलते देखा,
सीख मिली नूतन सी मुझको,
फिर भी मन है भारी,
व्यथित ह्रदय होता है पल पल,
सोच के हे त्रिपुरारी,
सरित प्रेम को मिल प्रपात में,
धार बदलते देखा,
मैने तो रिश्तों का कौमार्य.......
पलक झपकते बदली दुनियां,
मुझ गंवार पागल की,
खुली आँख तो देखा अचरज,
है दुनियां छल बल की,
बचपन से अब तक खुशियों को,
द्वार बदलते देखा,
मैने तो रिश्तों का कौमार्य.........
पुरखों की सत शिक्षाओं को,
उर में धारण कर के,
पल पल देखा खुद को खुद में,
अह्लादित हो मरते
पीछे आते राही को हाँ,
राह बदलते देखा,
मैने तो रिश्तों का कौमार्य.......
कैसी दुनियां कैसे रिश्ते,
मतलब के सब साथी,
जाने कब तक लिये चलूंगा,
संस्कारों की थाथी,
अच्छा हुआ कहूं मै कैसे ,
सधवा का श्रंगार बिखरते देखा,
मैने तो रिश्तों का कौमार्य उतरते देखा।