शुक्रवार, 20 मार्च 2015

जाल..

नहीं झुरझुरी हुई थी मुझको मौसम जब था सर्द यहां
परस्त्री आकर्षण का कुत्सित खेल है कुछ मस्तिष्कों का
जो, हमदर्दी का रूपक गढ़ते, चरित्रहीन कमजर्फों का.
काँप गया था देख के पर कुछ अभिलाषी नामर्द यहाँ.
नहीं झुरझरी..
शब्द अलंकृत गहराते हैं बद्धितलिपि हो, छंदों में
परिचय पलपल बढ़ता जाता,निश्चय के सब फंदों में
इनकी तो पहचान सरल है रहती सूरत जर्द यहाँ
नहीं झुरझरी..
काम लपेटे मन के भीतर मिश्री सी रखते ये बोली
बसे हुए नैनों, स्वप्नों में, अंगिया, सुंदरि, सुंदरि चोली.
ऐसी सभी कुसंस्कृत शै को करना है बेपर्द यहाँ.
नहीं झुरझुरी...