बुधवार, 12 सितंबर 2012

अंगूर की बेटी


बाहर बैठा अण्डा भुर्जी खीरा ककड़ी बेंच रहा हूँ,
अब्बा जब पीते थे तब से देशी ठेका देख रहा हूँ,
जश्न औ मातम रोज ही होते सड़क किनारे मैखाने पर,
राजा हो चाहे रंक सभी का नाम लिखा दाने दाने पर,
होती दावत रोज यहाँ पर भूंखे बच्चे सोते हैं,
पिनक में दारू की सब हँसते और कभी सब रोते हैं,
जाने कितने दुम्बे कटते रोज़ बगल मैखाने के,
बोटी रोटी साथ छलकते जाम यहाँ पैमाने के,
होती जूतम लात कभी चल जाती लाठी मस्तक पर,
रुक जाती साँसे सबकी बस एक पुलिस की दस्तक पर,
कोई चना चबेना लेता कोई अण्डा बिरयानी,
कोई नमक चाट कर पीता पीता कोई बिना पानी,
जमघट भक्त लगाते निश दिन लड़ते और झगड़ते,
कोई आता कार से बाबू कोई पाँव रगड़ते,
जेब मे तड़ ना होती और जब बोतल ना मिल पाती,
सुविधा सबके लिये है ले लो सौ ग्राम मिल जाती,
कोई चूस रहा शीशी को कोई खींच रहा है,
कोई कड़वाहट के मारे आँखी मींच रहा है,
घर मे रस्ता देख रही है पत्नी आस लगाए,
पति महोदय ठेके मे है पैग पे पैग चढ़ाए,
कोई गिरता धरती पर जब होता नशा गुलाबी,
कोई गिरता नाली मे कहते सब लोग शराबी,
बड़ी नशीली बड़ी रंगीली है अंगूर की बेटी,
जाने कितने घरों की खुशियाँ इसने जड़ से मेटी,
फिर भी यारों मजा ले रहे मित्र हमारे प्यारे,
रोशन करते रोज नशेड़ी गलियाँ और चौबारे,
मै भी कहता मजे उठा लो जीवन है दिन चार,
मरना है सबको जब एक दिन अभी मरो तुम यार............

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