शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

शिकार....

साहित्य की राजनीति के लिए...


कविता भी होती आज राजनीती का शिकार,

लेखनी भी कर रही शब्दों में फर्क है,

शीला और मुन्नी को तवज्जो दे रहे है लोग,

इसीलिए आज कविता का बेडा गर्क है,

जिसको भी देखिये पहुंचे हुए है कवी सब,


कवी कवी में तो था ही मंच में भी फर्क है,


कोई हास्य व्यंगकार कोई गीतकार है,


कोई न्यायाधीश बनकर बैठा है ये तर्क है,


चाटुकारिता का है व्यापक यहाँ प्रभाव,


स्वाभिमानी कवी के लिए सबसे बड़ा नर्क है....


कर रहा फिर भी मै ईमानदारी से प्रयास,

सादे सरल शब्द हैं ना चांदी का वर्क है.......

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