रविवार, 20 फ़रवरी 2011

कवि का दर्द....

आज कविता के  भी छेत्र में बहुत राजनीति है,
फिर भी क्या कहूँ मित्रों हमको इससे प्रीति है,
सारी उम्र लिख लिख के फाड़ते कागज रहे,
कवी हम कैसे बने आपसे कैसे कहे,
उल्टा सीधा सोंचते सोंच ही बदल गई,
 और किसी को नहीं पत्नी जी को खल गई,
घर के भीतर का झगडा अब तो आम हो गया,
छेत्र में कविता के फिर भी मेरा नाम हो गया,
मुसीबतें हो गई सहेली,
श्रीमती बन गई पहेली,
हाँथ रख कर गाल पे  रात दिन सोंचा किये,
बेगम के तानो को सुन कर बाल हम नोचा किये,
इस बात का प्रमाण सामने है आपके,
फिर भी कोई शक है तो सर देखिये नाप के,
खेत सारा साफ है बिना कोई श्रम किये,
युवतियां अब देखता हूँ आंख अपनी नम किये,
क्या बताऊँ हाय मेरा हाल कैसा हो गया,
सोंच कर हालत को अपनी चैन मेरा खो गया,
अब तो जाता हूँ यारो जब भी किसी मित्र घर,
कांप जाते है बड़े सब सारे बच्चे जाते डर,
कोई भी सुनता न कविता भाग जाते छोड़ घर,
घटना ऐसी जब भी होती क्रोध से जाता हू भर,
कष्ट मेरे भाई अब तो रोज बढ़ते जा रहे,
बालों के खोने कि सिल्वर जुबली हम मना रहे,
दर्द सारा पी रहा हूँ स्वाभिमान छोड़ कर,
बन के कवी जी रहा हूँ सारे रिश्ते तोड़ कर,
हम तो यारों कट गए दुनिया से सारी,
अब  तो केवल मै हूँ और  मेरी कविता है प्यारी........और मेरी कविता है प्यारी.....

                                                                                        आपका बुलबुल
                                                                                         राजेंद्र अवस्थी (कांड)

2 टिप्‍पणियां:

  1. क्या दर्द बयां किया है.....
    आजकल तो हर तीसरा व्यक्ति बाल खोने की व्यथा सह रहा है...
    बहुत अच्छा लिखा है...

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