मंगलवार, 7 जुलाई 2015

विस्मय..

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,
दीवारें हिलती पर्दों सी देख जरा ना घबराओ,

स्वर्णिम बादल सूरज घेरे किरणें कैदी हो जातीं,
परेशान सा जलता दीपक औ रोगी रोती बाती,
रुग्ण मनस हो चला हो जैसे अंधकार का प्रेत,
मुर्दों की फसलें बह जाती खाली रहता खेत,
चकित क्यूं होता चित्त चरित कुछ तो इसको समझाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ

खड़े हुए सब उसी जगह पर जहाँ से कल भागे थे,
शवों की हड्डी पकड़ के कहते हम तो कल आगे थे,
नित नित धूप जलाती चाँदनी चंदा संग ढलती है,
शहर नही है मरा हुआ यहाँ लाशे तक चलती हैं,
कौतुक मत जानो इसको ना जरा कहीं तुम भरमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,

कितना सारा नियम बना औ तर्क-वितर्क बहुतेरे,
शब्द लब्ध भी हुए तो क्या मर्कट तो दुनियां घेरे,
काश जो होता मैं उस पल जीवन गीत सुना देता,
सूने से शहरों में साथी प्रीत की रीत चला देता,
भौचक हो क्या देख रहे इक बार मुझे भी अजमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ

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