मंगलवार, 8 मई 2012

रेल का टिकट.

शब्द नही है प्यार है मेरा,शब्दों का संसार है मेरा, अगणित बातें कहने को(कलम)ब्लॉग ही अब आधार है मेरा...


                                                    


पहली बार हमने लिया रेल का टिकट,

लाइन लगी थी बड़ी विकट,
हम भी आंखी मीचे, लग गए सब से पीछे,
गरमी के मारे निकल रहा था पसीना,
तभी धकेलते हुए मुझे आगे बढ़ी एक हसीना,
होंठो पर लिए विज्योंमत्त हँसी,
अभिमन्यु की तरह लाइन के चक्रव्यूह में घुसी,
सभी की निगाहें उसी पर थी चप्की,
वो टिकट के लिए खिडकी पे लपकी,
मै इस अन्याय को ना सह पाया,
मैडम लाइन में आइये फरमान सुनाया,
इससे पहले कि लड़की अपना पर्स खोले,
भ्रष्टाचार के खिलाफ मुझे लड़ता देख कुछ और लोग भी बोले,
मैडम आप गलत कर रही है,
महिलाए अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही है,
लाइन चाइना वाल की तरह थी लंबी,
मैंने कहा:मेरे आगे लग जाओ महिला समर्थक है हम भी,
लड़की ने कर दिया इनकार,
मेरे पीछे खडी हो गई निर्विकार,
रह गया मै हक्का बक्का,
अचानक किसी ने मारा जोर से धक्का,
लाइन का सिस्टम बिगड़ा,
मेरे आगे पहलवान लगा हुआ था एक तगड़ा,
मुझे घूरा आँखे तरेरी गरमाया,
मैंने नेता की तरह पोलैटिली समझाया,
पहलवान ने मेरी औकात को बांचा,
आओ देखा ना ताव मार दिया तमाचा,
हमने भी ऊपर नीचे हाँथ पैर हिलाए,
पर पहलवान का कुछ भी ना बिगाड़ पाए,
लड़ाई की उम्र थी कम जैसे कनपुरिया बिजली,
पीछे से मैडम को गायब देख  मेरी तबीयत दहली,
तुरंत जेब टटोली पर्स देखा,
मेरे माथे पर खिंच गई चिंता की रेखा,
पर्स के साथ पीछे की जेब लापता थी,
मै चीखा,कोई तो बताओ यार मेरी क्या खता थी,

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