छोड़ दो फेरा ग्रहों का तुम शनि के घर में हो,
शांति की हो बात कैसे आत्मा जब डर में हो,
खोजते हो रास्ते पर खो चुकी उम्मीद को,
चमक से लुट जाओगे चोरों के शहर में हो,
पालते हो स्वप्न क्यों स्वाभिमानी चैन के,
आँसुओं से है जो गीला तुम उसी बिस्तर में हो,
पेट भर खाना जुगाड़ो बेशरम बन कर रहो,
फिर तराजू ले के बैठो तुम उसी स्तर में हो,
पीठ पर थपकी यहाँ पर मुफ्त में मिल जायेगी,
मिलती हैं मीठी बोलियां फ्री तुम उसी के दर में हो,
पत्नी तो पल पल प्रश्न करती ही रहेगी शान से,
शुक्र है घर पर नहीं तुम आज भी दफ्तर में हो।
भले ना हो पास मेरे शब्दों का खजाना, ना ही गा सकूँ मै प्रसंशा के गीत, सरलता मेरे साथ, स्मृति मेरी अकेली है, मेरी कलम मेरी सच्चाई बस यही मेरी सहेली है..
मंगलवार, 18 नवंबर 2014
फेरा..
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