संवेदना की उठ चुकी अर्थी यहाँ पर,
भावना पर बर्फ जमती है यहाँ पर,
ईमान की सूरत यहाँ बिगड़ी हुई है,
सत्यता भी रोज मरती है यहाँ पर।
विद्वता की है यहाँ भरमार भाई,
बलात्कारी बन प्रतिष्ठा है गंवाई,
पर नज़र का नीर तो सूखा हुआ है,
सरलता से फिर कोई धोखा हुआ है,
बेइमानी की फसल बेजोड़ होती,
कठिनाइयाँ हल से बराबर होड़ लेती,
आओ कर लें फिर से चर्चा दामिनी पर,
या उछालें लांछन किसी मानिनी पर,
जागरुकता का भी परिचय दे ही डालें,
बाण तरकश से नया कोई निकालें,
छेद डालें फिर किसी मुनिया की छाती,
हम सम्हाले फिर रहे संस्कृति की थाती,
हम ही ठेकेदार हैं सगरी धरा के,
मृत्यु,मुर्छा,जीविता,जड़ता,जरा के,
देखता हूँ बचपने से बातें बनते,
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते तत्र देवता रमन्ते,
देवता अब बस मिले हैं मूर्तियों में,
पुजारी भी रमें हैं कुत्सित पूर्तियों में,
अब नहीं होता यहाँ नारी का पूजन,
मशतिष्क में रहता है कुत्सित ही प्रयोजन,
इसलिये हे नारियों अब तुम ना मानों,
जंग लड़ने की ह्रदय में नेक ठानो,
तुम जगतमाता हो जननी भी तुम्ही हो,
तुम ही पुत्री प्रेमिका भगिनी तुम्ही हो,
सर्वशक्तिमान हो अभिमान हो तुम,
माँ भारती का उचित स्वाभिमान हो तुम,
भले ना हो पास मेरे शब्दों का खजाना, ना ही गा सकूँ मै प्रसंशा के गीत, सरलता मेरे साथ, स्मृति मेरी अकेली है, मेरी कलम मेरी सच्चाई बस यही मेरी सहेली है..
शनिवार, 7 दिसंबर 2013
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता
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और आपके द्वारा की गई आलोचनाओं को शिरोधार्य करते हुए, मै मस्तिष्क में संजोता हूँ.....