महक उठी है शाम सुहानी पुरवा पागल हो बैठी,
मै बिरहन ऐसी बौराई अँसुवन आँचल धो बैठी,
दर्पन मुखड़ा नैन निहारें जब दर्पन मैं देखूँ,
रंग नशीला नैनन देखूँ सुधबुध सारी खो बैठी,
महकी मेरे मन की बगिया कलियाँ फूलन लागीं,
याद हिया में पिया समाई सम्हली फिर मैं रो बैठी,
सोंचूँ तज दूँ नींद नयन की चंदा जिया जरावे,
बाट निहारूँ रात रात भर जागी फिर मैं सो बैठी,
मै मतवारी हुई बावरी याद तेरी जब आवे,
मैं बैठी की बैठी रह गई याद में तेरी जो बैठी,
सखियन को कैसे बतलाऊँ लाज मोहे है आवे,
सोंचा था बेला महकेगा पर काँटे मैं बो बैठी,
महक उठी है शाम सुहानी पुरवा पागल हो बैठी,
भले ना हो पास मेरे शब्दों का खजाना, ना ही गा सकूँ मै प्रसंशा के गीत, सरलता मेरे साथ, स्मृति मेरी अकेली है, मेरी कलम मेरी सच्चाई बस यही मेरी सहेली है..
बुधवार, 23 जुलाई 2014
पुरवा.
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