नतमस्तक हूँ आज समय के सामने,
श्रम का प्रतिदान चाबुक की फटकार,
जिम्मेदारियों का बोझ लादे ,
चला आया बचपन को झिड़कते हुए,
तानों, दुराग्रहों , समाज की,
बेंड़िया पहने मनाता रहा त्योहार,
बोझ कभी भारी ना लगा,
पर आज समय ने नतमस्तक कर दिया,
स्वाभिमान भी दलदली हो गया है अब,
सूखे ठूंठ सा ज्ञान बाँकी है,
जो जीवन और मृत्यु के फर्क को जताता है,
साथ ही ये भी बताता है कि,
सिर्फ ठूँठ बचा है.........
.सिर्फ ठूँठ बचा है..
राजेन्द्र अवस्थी (काण्ड)ै
ठूंठ से फ़िर नयी कोपलें निकलेंगी।
जवाब देंहटाएंआदरणीय .....आस जगाने और उम्मीद बढ़ाने के लिए आभार ......
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