मेरा स्वयम का अनुभव है, आप भी देखें...
कई दिवसों के बाद आज फिर से मेरे मष्तिष्क में,
कुछ खुराफाती विचार नो एंट्री में घुसे ट्रक कि तरह घुसे,
पहले तो हम मन ही मन हँसे,
फिर लगा विषय तो है ये बहुत ही गहरा,
अचानक ब्रेक लगी खुराफाती ट्रक ठहरा,
पर ये हगास बहुत ही अजीब है,
इस पर चर्चा न करना हमारी तहजीब है,
हम छोड़ नहीं सकते इतनी अहम् बात को,
मुश्किल में पड़ जाते है जब लग जाती है रात को,
शीत ऋतू में बिस्तर का मोह,
ऊपर से निद्रा का विछोह,
पर लगे होने कि मजबूरी,
नहीं करने देती निद्रा पूरी,
सबसे पहले हम कसमसाते है,
कुछ भी समझ नहीं आता है,
हगास न आए तो होती है बड़ी पीड़ा,
बिना हगे नहीं जी सकता कोई कीड़ा,
कुछ लोग बैठ के है करते,
कुछ लोग बैठने से है डरते,
चेहरा देखिये उस आदमी का गौर से,
जिसको टट्टी लगी हो जोर से,
मौका न मिल रहा हो करने का ,
ऐसे में मन करता है मरने का,
बेचैनी सी छा जाती है,
जब मुहं के पास आ जाती है,
अब निकली कि तब निकली,
अनियंत्रित हो जाती पगली,
बढ़ जाए दूरी यदि घर की,
डर लगा ही रहता अब सरकी,
तब मार चिमोटा भाग चलो,
घर खुला मिले उसमे घुस लो,
फिर परम शांति को करो प्राप्त,
उदर शूल जो है व्याप्त,
लम्बी लम्बी सांसे ले कर,
उदर के ऊपर कर रख कर,
नेत्र बंद हो कर गुम सुम,
याद करो फिर प्रभु को तुम,
बहुत बुरी इसकी है बॉस,
एकबार में न निकले तो बार बार सब करो प्रयास,
मेरा तो बस यही है अनुभव,
खूब हगो जितना हो संभव,...........
कई दिवसों के बाद आज फिर से मेरे मष्तिष्क में,
कुछ खुराफाती विचार नो एंट्री में घुसे ट्रक कि तरह घुसे,
पहले तो हम मन ही मन हँसे,
फिर लगा विषय तो है ये बहुत ही गहरा,
अचानक ब्रेक लगी खुराफाती ट्रक ठहरा,
पर ये हगास बहुत ही अजीब है,
इस पर चर्चा न करना हमारी तहजीब है,
हम छोड़ नहीं सकते इतनी अहम् बात को,
मुश्किल में पड़ जाते है जब लग जाती है रात को,
शीत ऋतू में बिस्तर का मोह,
ऊपर से निद्रा का विछोह,
पर लगे होने कि मजबूरी,
नहीं करने देती निद्रा पूरी,
सबसे पहले हम कसमसाते है,
थोड़ी देर बाद उहापोह में खुद को पाते है,
फिर दर्द बढ़ता जाता है,कुछ भी समझ नहीं आता है,
हगास न आए तो होती है बड़ी पीड़ा,
बिना हगे नहीं जी सकता कोई कीड़ा,
कुछ लोग बैठ के है करते,
कुछ लोग बैठने से है डरते,
चेहरा देखिये उस आदमी का गौर से,
जिसको टट्टी लगी हो जोर से,
मौका न मिल रहा हो करने का ,
ऐसे में मन करता है मरने का,
बेचैनी सी छा जाती है,
जब मुहं के पास आ जाती है,
अब निकली कि तब निकली,
अनियंत्रित हो जाती पगली,
बढ़ जाए दूरी यदि घर की,
डर लगा ही रहता अब सरकी,
तब मार चिमोटा भाग चलो,
घर खुला मिले उसमे घुस लो,
फिर परम शांति को करो प्राप्त,
उदर शूल जो है व्याप्त,
लम्बी लम्बी सांसे ले कर,
उदर के ऊपर कर रख कर,
नेत्र बंद हो कर गुम सुम,
याद करो फिर प्रभु को तुम,
बहुत बुरी इसकी है बॉस,
एकबार में न निकले तो बार बार सब करो प्रयास,
मेरा तो बस यही है अनुभव,
खूब हगो जितना हो संभव,...........
आपके लिए भी ऑल द बेस्ट....
जवाब देंहटाएंमजेदार....
खूब लिखिए...
आपने मेरी कविता को सराहा इसके लिए आपको बहुत धन्यवाद. आपकी आलोचनाएँ भी मेरा मार्गदर्शन करेंगी...
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