बड़ा अफसोस होता है जब कोई मित्रता की आड़ में धोखा देता है। लेकिन ये तो कड़वा सच है कि धोखा तो वही देता है जो जान वाला होता है, हाँ इस धोखे की प्रबलता और बढ़ जाती है जब कोई स्त्री धोखा देती है क्यों कि स्त्री हमारी मानसिकता में सिरे से कमजोर,मूर्ख,और दयालु होती है इसलिये उसके द्वारा खाया हुआ धोखा आसानी से हजम नही होता..दरअसल हम आज भी मनुष्य को सभ्य नही कह सकते क्यों कि "सभ्य" शब्द कहने के लिये "सभ्य" शब्द की परिभाषा भी मालुम होनी चाहिये या कम से कम इतनी संतुष्टि तो स्वयं को होनी ही चाहिये कि "सभ्य" शब्द की आड़ मे कोई धोखा नही दिया जा रहा। लेकिन समस्या यहीं से शुरू होती है जब भी किसी पर या कहीं पर भरोसा करने की बात आती है तो वहाँ पर धोखा और झूठ भी होने की पूरी सम्भावना होती है बस अंतर ये होता है कि हम भरोसा कर लेते हैं विश्वास कर लेते हैं गैर पर अजनबी पर फिर उस गैर को अथवा अजनबी को अपना बनाते हैं उसके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं. फिर उस पर भरोसा करते हैं क्यों कि भरोसा किसी गैर पर या अजनबी पर तो किया नही जाता और फिर जैसे ही भरोसा कायम होता है धोखा मिलने की शुरुआत हो जाती है अब देखना ये होता है कि धोखा कितने अर्से बाद मिलता है ऐसा भी नही कि हर बार विश्वास के बदले धोखा मिले ही किंतु ऐसा बहुत ही कम देखने में आता है हाँ ये अवश्य पुख्ता तौर पर कहा जा सकता है कि पति-पत्नी का सम्बन्ध पूर्णरूपेण विश्वास पर आधारित होता है, इसका अर्थ ये नही कि अन्य रिश्तों पर यकीन ना किया जाय। ऐसा नही है.. विश्वास करना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है इसे ऐसे समझ सकते हैं, मछली जल पर विश्वास करती है प्रत्येक प्राणी प्राणवायु पर विश्वास करता है ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। अंतर इस बात से पड़ता है कि विश्वास करने से पूर्व आपने कितनी जानकारी जुटाई फिर भी इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि भरोसे के बदले धोखा नहीं मिलेगा...दरआस सिक्के के ये दो पहलू हैं। विश्वास-धोखा किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया ।
Very nice post ...
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