हिंदुस्तान के कुछ ब्राह्मणों का मानना है कि जब उन्हें यज़ीद और हुसैन के बीच घटित होने वाली लड़ाई की खबर मिली तो ब्राह्मणों के एक गिरोह ने हिंदुस्तान से इराक़ की ज़मीन की तरफ़ कूच किया ताकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद कर सकें।
जब यह लोग इराक़ की ज़मीन पर पहुंचे तो कर्बला की दर्दनाक घटना हो चुकी थी और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके जान निछावर करने वाले साथी अपनी जान निसार कर शहीद हो चुके थे। यह ब्राह्मण गिरोह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ख़ून का बदला लेने के लिए कूफ़े में मुख़्तार के सिपाहियों से जुड़ गया और सभी लोग मुख़्तार सक़फ़ी के साथ जंग में शामिल होकर शहीद हो गये। हिंदुस्तान में इन बृाम्हणों ने अलैहिस्सलाम की याद में अज़ादारी शुरू कर दी और मुहर्रम के दिनों में ख़ास अंदाज़ में मजलिस, मातम और नौहा और मर्सिये का आयोजन करते हैं और हिन्दी, संस्कृति, पंजाबी उर्दू और कश्मीरी आदि में नौहा और मर्सिया के शेर लिखते हैं।
असरार नसीमी का ये शेर देखे...
'वाकिफ-ए-मर्जी-ए-रब थे नहीं मांगा पानी,
वर्ना जब चाहते ठोकर से निकलता पानी,
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