सर्दी की एक काँपती भोर,
ठिठुरती छोटी सी बच्ची,
नंगे पाँव, चिथड़ा फ्राक,उम्र कच्ची,
उलझे गंदे कोमल बाल,
गुज़ारे थे ज़िन्दा सात साल,
आँखों मे चमक चाह पूर्ति की,
मासूम संगेमरमर की मूर्ति सी,
मरियम सा चेहरा लिये,
सूखे पपड़ीदार होंट अपने सिंये,
खड़ी थी नंगे पाँव सड़क पर,
तभी एक इंसान बोला कड़क कर,
साले माँग माँग कर माल खाते हैं,
बच्चे पैदा करके सड़क पर डाल जाते हैं,
बच्ची रही निर्विकार भावना हीन,
मै बदकिस्मती से देख रहा था
इंसानियत का सीन,
धर्म भीरू समाज का कुरूप चेहरा,
सम्वेदना हीन मानव
हो चुका है बहरा,
बना लिया स्वार्थ की परिधि चारो ओर,
राम, अल्लाह,जीसस,
पुकारता जोर जोर,
पत्थरों को लगा कर गले,
गलतियों की माला पहन कर चले,
फिर भी देता नैतिकता की दुहाई
थोड़ी ही देर बाद बच्ची चीखी चिल्लाई,
सर्दी के कारण जोर से थरथराई,
फिर गिर पड़ी भारतिय संस्कृति जैसी,
सड़क पर पड़ी थी
देश के नक्शे की आकृति जैसी,
इंसानो की भीड़ ने घेरा चारो चरफ से,
बच्ची के सर्वांग थे ठण्डे बरफ से,
सीमाएं थी नक्शे के चारो ओर स्थापित,
नज़रों से सब करते थे संदेश ज्ञापित,
लोग इंसान थे विद्वान थे महान थे,
शायद इसी लिये नादान थे,
बच्ची का शव पड़ा था संविधान बन के,
देश का स्वाभिमान पड़ा था बेजान बन के,
"शानदार" का पता नहीं, पर बड़ी मार्मिक और ह्रदय-स्पर्शी...... सुन्दर लेखन, शुभकामनाएँ !!
जवाब देंहटाएंआभार दमयंती जी .........
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