आसमानों से उतर कर मुझे खुशी हुई,
जब मैंने प्यासी वसुंधरा देखी,
समस्त जीव मेरी आरती उतारने लगे,
मै लहराती बलखाती,
चल पड़ी ऊंचे नीचे रास्तों पर,
प्रपात अपने पीछे छोड़ती हुई,
शक्ति का परिचय पाषाणों ने माँगा,
रेत का रूप दे दिया उनको,
वृक्षों ने मेरे यौवन को छूना चाहा,
उनकी जड़ो को हिला दिया मैंने
पर मुझे गौरव प्रदान किया मनुष्य ने,
मेरे किनारों को सहेजा संवारा,
मेरी शाखाओं को ले गया अपने घरों तक,
मै भी बच्चो सा मन लिये निर्मल करती रही,
सावन सी उन्मादित ऋतुओं को,
तभी कलकारखानों के मौसम में,
मेरी सांसों को धीमा किया जाने लगा,
मै समझ गई पर मानव ना समझा,
मैने भी नहीं की जिद ,
कारखानो की पैदावार रोकने की,
फसलें लहलहाईं प्रगति की,
और मेरी सांसे और मद्धिम होती गईं,
मै आज भी जीवित हूँ,
कम होती सांसो के साथ,
अब मै प्रपात नही बनाती,
ऊंचे नीचे रास्तों को पीछे छोड़ दिया मैने,
रेत भी मेरी राह रोकती है अब,
शाखाएं अस्तित्वहीन हो चुकी,
ऋतुओं को अब परवाह नही मेरी,
किन्तु
कारखानों की फसल लहलहा रही है,
very nice....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवांगी .....
हटाएंनदी का दर्द , शुष्क बूंदों की कराहट
जवाब देंहटाएंआभार रश्मि प्रभा जी , आपने इस दर्द को महसूस किया ...
हटाएंबढिया लिखा है।
जवाब देंहटाएंआपकी टिपण्णी अपने ब्लॉग पर देख कर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है ...
हटाएंआपके शब्दों का जादू ऐसा है कि मै कुछ कह पाने में असमर्थ हूँ ...आगे भी अच्छा लिखने का प्रयास करूँगा........