रविवार, 17 जून 2018

ईद मुबारक कैसे कह दें

हम ईद मुबारक कैसे कह दें,
जब जंग छिड़ी हो अपनों में,
और आग लगी हो सपनों में,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब रोटी चाँद का टुकड़ा हो,
बच्चों का रोता मुखड़ा हो,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब खून लगा हो हाँथों में,
और सूनी माँग हो माथों में,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
जब कब्र में बिस्तर लगता हो,
और बस्तों में बम मिलता हो,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें?
हम ईदी की क्या बात करें,
जब खुशियों का है गात परे,
फिर ईद मुबारक कैसे कह दें?
हो तुम्हे मुबारक नादानी,
और बच्चों की ये कुर्बानी,
हम ईद मुबारक कैसे कह दें????

राजेन्द्र अवस्थी...

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

आदरणीय गोपालदास "नीरज" से प्रेरित हो कर.. "दिया मुस्कराए"

इस न्यारी धरा पर जले दीप जब भी,
जले ना पतंगा दिया मुस्कराये,

जगे ज्योति मन में छँटे धुंध तम की,
अधमता,निराशा,मिटे प्राण से सब,
रहे चित्त निर्मल बने शक्ति कोमल,
रहे मुख दमकता प्रभू से मिलूँ जब,
स्वागत निशा जो करे फिर तिमिर का,
तिमिर सर झुका कर यही गीत गाये,
इस न्यारी धरा पर जले दीप जब भी,
जले ना पतंगा दिया मुस्कराये,

दिया एक हो तो ना होंगे अँधेरे,
बिसारो विगत हाँथ स्वागत बढ़ायें,
मस्जिद के आले में औ हर शिवाले में
श्रद्धा का नन्हा सा दीपक जलायें,
जले झूम कर जब दिया एकता का,
हिम्मत है किसकी जो इसको बुझाये
इस न्यारी धरा पर जले दीप जब भी,
जले ना पतंगा दिया मुस्कराये,

ऋषियों की धरती पे दीपों की माला,
रहे जगमगाती धरा जब तलक है,
कहीं रतजगा हो कहीं हो तिलावत,
फ़लक भी जगे है न झपके पलक है,
उठे गीत फिर जो सभी के लबों से,
सदियों से सदियाँ गुज़रती ही जायें,
इस न्यारी धरा पर जले दीप जब भी,
जले ना पतंगा दिया मुस्कराये।

सोमवार, 27 जून 2016

मुश्किल होता है..

जीने में छुप छुप कर रोना कितना मुश्किल होता है,
खाली घर में तन्हा रहना कितना मुश्किल होता है,

इक छोटी सी चिड़िया ने तो आसमान बस देखा था,
उसे क्या मालुम ऊँचा उड़ना कितना मुश्किल होता है,

खुशबू फैल रही थी उसकी लेकिन थी नादान बहुत,
काँटो से कलियों का बचना कितना मुश्किल होता है,

अपने सब थे पर अपनापन दिखा नहीं किरदारों में,
गैर के आगे यारो झुकना कितना मुश्किल होता है,

गुजरी रात जलाया दीपक भोर तलक ना जल पाया,
उम्मीदो का यूँ मर जाना कितना मुश्किल होता है,

दूजी दुनियाँ से हमने आवाज सुनी जब बेटी की,
आँखों से आँसू मर जाना कितना मुश्किल होता है,

पता है हमको तुम्हे पता है मेरी सब हुशियारी का,
चुप रह कर भी 'राज' छुपाना कितना मुश्किल होता

                                         राजेन्द्र अवस्थी.....

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

संकलित- अक्ल

अक्ल बाटने लगे विधाता,
             लंबी लगी कतारें ।
सभी आदमी खड़े हुए थे,
            कहीं नहीं थी नारें ।

सभी नारियाँ कहाँ रह गई.
          था ये अचरज भारी ।
पता चला ब्यूटी पार्लर में,
          पहुँच गई थी सारी।

मेकअप की थी गहन प्रक्रिया,
           एक एक पर भारी ।
बैठी थीं कुछ इंतजार में,
          कब आएगी बारी ।

उधर विधाता ने पुरूषों में,
         अक्ल बाँट दी सारी ।
ब्यूटी पार्लर से फुर्सत पाकर,
        जब पहुँची सब नारी ।

बोर्ड लगा था स्टॉक ख़त्म है,
        नहीं अक्ल अब बाकी ।
रोने लगी सभी महिलाएं ,
        नींद खुली ब्रह्मा की ।

पूछा कैसा शोर हो रहा है,
         ब्रह्मलोक के द्वारे ?
पता चला कि स्टॉक अक्लका,
          पुरुष ले गए सारे ।

ब्रह्मा जी ने कहा देवियों ,
          बहुत देर कर दी है ।
जितनीभी थी अक्ल वो मैंने,
          पुरुषों में भर दी है ।

लगी चीखने महिलाये ,
         ये कैसा न्याय तुम्हारा?
कुछ भी करो हमें तो चाहिए.
          आधा भाग हमारा ।

पुरुषो में शारीरिक बल है,
          हम ठहरी अबलाएं ।
अक्ल हमारे लिए जरुरी ,
         निज रक्षा कर पाएं ।

सोचकर दाढ़ी सहलाकर ,
         तब बोले ब्रह्मा जी ।
एक वरदान तुम्हे देता हूँ ,
         अब हो जाओ राजी ।

थोड़ी सी भी हँसी तुम्हारी ,
         रहे पुरुष पर भारी ।
कितना भी वह अक्लमंद हो,
         अक्ल जायेगी मारी ।

एक औरत ने तर्क दिया,
        मुश्किल बहुत होती है।
हंसने से ज्यादा महिलाये,
        जीवन भर रोती है ।

ब्रह्मा बोले यही कार्य तब,
        रोना भी कर देगा ।
औरत का रोना भी नर की,
        अक्ल हर लेगा ।

एक अधेड़ बोली बाबा ,
       हंसना रोना नहीं आता ।
झगड़े में है सिद्धहस्त हम,
       खूब झगड़ना भाता ।

ब्रह्मा बोले चलो मान ली,
       यह भी बात तुम्हारी ।
झगडे के आगे भी नर की,
       अक्ल जायेगी मारी ।

ब्रह्मा बोले सुनो ध्यान से,
       अंतिम वचन हमारा ।
तीन शस्त्र अब तुम्हे दिए.
       पूरा न्याय हमारा ।

इन अचूक शस्त्रों में भी,
       जो मानव नहीं फंसेगा ।निश्चित समझो,
       उसका घर नहीं बसेगा ।

कहे राजू मित्र ध्यान से,
       सुन लो बात हमारी ।
बिना अक्ल के भी होती है,
       नर पर नारी भारी।

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

सामाजिक कुप्रथा..

भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाएं.....
एक कड़वी सच्चाई....

धिक्कार है ऐसे हिंदुओं पर भी जो विवाह के नाम पर अभी भी अपने लड़कों की बोली लगाते हैं,रीति रिवाज और परम्परा के नाम पर लड़की के पिता का पूरी तरह दोहन करते हैं बरिक्षा में 50,000  तिलक में मोटरसाइकल और दो लाख नकद लड़के के पिता को इस बात से कोई लेना देना नहीं कि विवाह के बाद बाँकी का परिवार कर्ज अदा करते हुए अपना जीवन कैसे जियेगा और इतना सब करने के बाद भी ससुराल में लड़की के ऊपर अत्याचार ....वाह रे हिंदू समाज.....
एक बात और कहना चाहता हूँ...
बेटी के विवाह में व्यवहार लिखाने की परम्परा है......बड़ी नायाब परम्परा है....जिस इंसान ने अच्छी तरह सोंच समझ कर वर्षों पहले से बेटी के विवाह हेतु योजना बना रक्खी है लाखों रुपये चोरी और भृष्टाचार से कमा कर बचा रक्खा है उसका इस दस बीस या पचास हजार रुपये का व्यवहार आ जाने से क्या भला हो जाएगा...मेरी समझ में नही आता...जब कि आज के समय में एक खाने की थाली पाँच सौ रुपये से कम की मिलना मुश्किल ही नहीं असम्भव है....
ऊपर से तुर्रा ये कि यदि कोई जानपहचान वाला अस्पताल में भर्ती हो जाय तो सब उसको देखने जाने लगते हैं जैसे इस दुनियाँ में उस रोगी व्यक्ति का उनसे बड़ा अन्य कोई हितैषी ही ना हो..किंतु हमदर्दी दिखाने का ये तरीका इतना विभत्स है कि शब्द भी सामर्थ्य खो देते हैं कुछ भी विचार देने में.....कुछ क्षण के लिये सोंचिये एक व्यक्ति अस्पताल में भर्ती है...
बेहोश है और उसके ग्लूकोज़ चढ़ रहा है ऑक्सीजन की नली पेशाब की नली और लैट्रीन की थैली लगी है...एक मित्र उस मरीज को देखने पहुँचते हैं एक दर्जन केले के साथ अब बंदा बेहोश पड़ा है पानी की एक बूँद भी मना है फिर भी केले! या मौसमी का जूस ...पत्नी उस मित्र को पहचानती नहीं जो पहचानता है वो बेहोश पड़ा है....फिर भी महाशय हाँथ जोड़ कर बोलते है भाभी जी किसी सहायता की जरूरत हो तो संकोच मत करियेगा.... हद है जहाँ लोग जानपहचान के लोगो से संकोच करते हों फिर भला किसी अनजान से संकोच कैसे ना होगा!
एक रिश्तेदार मरीज को देखने पहुँचते हैं बैठते हैं...भाभी जी चाय मँगाती हैं..फिर बातचीत का सिलसिला शुरू होता है...ऐसी बाते कि डॉक्टर सुन ले तो अपनी डिग्रियाँ फाड़ डाले..... प्रश्न-कितने टॉके लगे हैं...उत्तर- तेरह...
ओहह..ये तो कुछ भी नही..हमारी बुआ सास का ऑपरेशन हुआ था तो 27 टॉके लगे थे..प्र0और ये थैली कैसी लगी है उ0 ये पॉटी के लिये है......इतना सुनते ही जेब मे रक्खा रुमाल तुरंत नाक पर आ जाता है...लोग दनादन देखने जाते रहते हैं जैसे उनके पास कोई चमत्कारी शक्ति हो कि उनके देखते ही मरीज अपना दर्द भूल जायेगा या भला चंगा हो जायेगा...देखने जाने वालों को ये खबर भी नही होती कि वास्तव में वो जिसे देखने जा रहे है उसका कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं...सड़को पर कितनी सफाई स्वच्छता रहती है ये किसी से छिपा नही है और उन्ही सड़को से चल कर चप्पल जूतों में हजारों विषैले तत्व चिपटाए हुए जब कोई किसी मरीज को देखने जाता है....तो शायद वो उस मरीज को इस नश्वर संसार से विदा करने का उपक्रम ही करने जाता है....
होना तो ये चाहिये कि विवाह में व्यव्हार चाहे ना दिया जाय लेकिन किसी के बीमार पड़ने पर उसके परिवार की सहायता अवश्य की जाय...क्योकि विवाह पूर्वनियोजित होता है लेकिन बीमारी अचानक आती है....बाते और भी हैं...आवश्यक नहीं मेरे विचारों से सहमत ही हुआ जाय... और यदि मेरे विचार को पढ़ कर किसी की भावनायें आहत होती हैं....तो मैं विनम्रता पूर्वक क्षमा प्रार्थी हूँ..।
         लेखक.....  राजेन्द्र अवस्थी..

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

आधारशिला

आह आह...
आज कुछ अंतस में टूटा है,
खिजा ने फूलों को लूटा है,
थे मौन तो कोई बात ना थी,
आधार तेरा वादा झूठा है,
            आज कुछ अंतस में टूटा है,...
अंगारों को खुशबू दे डाली,
फूलों में अग्नि लहका दी,
शब्द पड़े थे लाशों जैसे,
पन्नो पर ऋतु पावस ला दी,
अब ग्रंन्थो से ग्रन्थी छूटा है,
             आज कुछ अंतस में टूटा है,...
बौने सारे शब्द हो गये,
भाषा के स्वर मौन हो गये,
कुनबा सारा जोड़ लिया था,
अनायास तुम कौन हो गये,
हृदय अश्रु झरना फूटा है,
              आज कुछ अंतस में टूटा है,....

                पूज्य राजीव चतुर्वेदी भैया जी को समर्पित अश्रुपूरित शब्दांजलि......

सोमवार, 2 नवंबर 2015

भागीरथी महिमा


नीचे बहै वारि तापे कच्छप सवार है,
कच्छप की पीठ.पै सवार शेषकारा है
शेष पै सवार अवनि भार स्यों दबाय रह्यो,
अवनि पै सवार शुंभ पर्वत विस्तारा है,
शुंभ पै सवार शंभु,शंभु पै सवार जटा,
जटा पै सवार भागीरथी जी की धारा है।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

"गुत्थी" मनहरण घनाक्षरी

देस केरि दसा देखि,जिउ जरा जात है,
लोकतंत्री मुलुक मा यो विस्वासघात है,
मइकूराम भूखन मरे जरे कण्डा बारि के,
कइसे बनै रोटी आटा कच्चै चबात हैं,
पातिउ बीनै नाई देत खेत तार बाँधे हैं,
ईसुर धूरि धूरि मइहा सब जने बतात हैं,
ओट ओटि लेत हैं पाछे कोउ देखत नाई,
गुत्थी के जीवन मा या अन्धेरी रात है,
राति होय पूस केरि जेठ कै बयार होय,
नाजु भरै उनके घर हमार खाली हाँथ है,
नीर नाइ आँखिन बुढ़उ परे खाँसि रहे,
महतारी छूछी टाठी रोजु खटपटात है,
नून आटा सानि सानि बच्चा जियाए है,
पानी पियै बार बार भूखन छटपटात है,
ठाकुर कहेन रहै यादि आवै बार बार,
तुम्हार दुख: मेटि देब या हमार बात है,
नाजु ले साजु तुम आजु रात चली आएव,
आधी रात ढोर तना दउरी चली जात है,
सूखी परी आँखी गुत्थी मरी आज रात,
जियै खातिन यहै अब रस्ता देखात है,

सोमवार, 14 सितंबर 2015

राज़..

सुबह गुज़री उम्र बीती साँझ भरमाने लगी है,
पलक भी बोझिल हुई नींद अब आने लगी है,

हूँ गगन से दूर फिर भी रात आँखो मे बसी है,
मस्त सावन की हवा भी लोरियाँ गाने लगी है,

पलक मूँदू जैसे ही मैं ख्वाब में वो हमनशीं है,
चाँदनी की चमक से मदहोशियाँ छाने लगी हैं,

तितलियों का रंग देखा उनके मुखड़े पर हँसी है
हर कली भी शाख पे मदमस्त लहराने लगी है,

किंतु सब कुछ छोड़ कर वासना की चाहना में,
रिक्त सी हर शै ज़मी की घर युँ ही जाने लगी है,

सुरभि संदल की उड़ी औ मंत्र उच्चारण हुआ है,
मुक्ति की उम्मीद में हर लाश अँगड़ाने लगी है,

कह रह हूँ "राज" सबसे अब सुनो या ना सुनो,
गीत अंतिम है ये मेरा मृत्यु अब भाने लगी है,
                             
सुबह गुज़री उम्र बीती साँझ भरमाने लगी है,
पलक भी बोझिल हुई नींद अब आने लगी है,
  
                                    राजेन्द्र अवस्थी....

रविवार, 6 सितंबर 2015

मुक्तक जैसा कुछ..

किस से सीखू मैं खुदा की बंदगी,
सब लोग खुदा के बँटवारे किए बैठे है,
जो लोग कहते है खुदा कण कण में है,
वही मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे लिए बैठे हैं !

मेरे हौसले को देख मेरे जज़्बात को ना देख,
मेरी बादशाही देख मेरे हालात को ना देख,
तपा कर रूह को अपनी ये इश्क ए जाम पाया है,
मेरे हिस्से में रंज ओ ग़म यही ईनाम आया है,
रही है बस यही दौलत मेरे दिल के खजाने में,
के तेरे ही नाम के पीछे मेरा भी नाम आया है,

गांव छोड़ के शहर आया था,

फिक्र वहां भी थी फिक्र यहां भी है।

वहां तो सिर्फ 'फसलें' ही खतरे में थीं

यहां तो पूरी 'नस्लें' ही खतरे में है

दिल पे लिखने का हुनर मुझको बता देते,
आप सिखाते मैं न समझता तो सज़ा देते,
हर जगह आज़माया है हाँथ मेरे बुजुर्गों ने,
काश़ मेरे लिखने के लिये कुछ तो बचा देते।

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

ट्रेड यूनियन का नेता

बेमतलब की बात है ये वो गुण्डा है या नेता है,
आपतो मतलब इससे रक्खो तुमसे वो क्या लेता है,

बचा नही पाओगे कुछ भी झोंकेगा आँखो में धूल,
लूटेगा सपनो को या फिर सपनो का विक्रेता है,

अपना सपना पूरा करता झूठ दंभ पाखण्ड सहित,
कुर्सी उसकी बची हुई है क्यो की वो अभिनेता है,

खुद के सुख की खातिर ये तो शातिर चाले चलता है,
सुख की इच्छा मत कर बंदे ये तो दुख ही देता है,

दारू गोश्त है अमृत इनका पानी नही ये पीते हैं,
कर्णधार तुम समझो इनको यही आज के नेता हैं,

शनिवार, 22 अगस्त 2015

हौसला

मेरे हौसले को देख मेरे जज़्बात को ना देख,
मेरी बादशाही देख मेरे हालात को ना देख,
तपा कर रूह को अपनी ये इश्क ए जाम पाया है,
मेरे हिस्से में तेरा ग़म तेरा ही नाम आया है,
रही है बस यही दौलत मेरे दिल के खजाने में,
के तेरे ही नाम के पीछे मेरा भी नाम आया है,
            राजेन्द्र अवस्थी....

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

सावन आया..

करुँगा तुमको जी भर प्यार,
पहले दिल की बात बता दो,
रूठो ना हमसे हर बार,
प्यार का पारावार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात....
बात तुम्हारी गुड़ियों वाली,
छलक रही यौवन की लाली,
आखिर कब तक करोगी,
हमसे हँसीं ठिठोली रार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात....
पहरों में रहती हो ऐसे,
पलक में कोई ख्वाब हो जैसे,
देखूँ छुप छुप मिलन हो कैसे,
फिर से अगली बार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर....पहले दिल की बात...
सावन आया पड़ गये झूले,
हम तुम मिल कर गगन को छूलें,
भोली सूरत वाली आकर,
प्यार का मुझको सार बता दो,
करुँगा तुमको जी भर.....पहले दिल की बात....

                                           राजेन्द्र अवस्थी..

रविवार, 19 जुलाई 2015

धोखा..मन की बात-4

बड़ा अफसोस होता है जब कोई मित्रता की आड़ में धोखा देता है। लेकिन ये तो कड़वा सच है कि धोखा तो वही देता है जो जान वाला होता है, हाँ इस धोखे की प्रबलता और बढ़ जाती है जब कोई स्त्री धोखा देती है क्यों कि स्त्री हमारी मानसिकता में सिरे से कमजोर,मूर्ख,और दयालु होती है इसलिये उसके द्वारा खाया हुआ धोखा आसानी से हजम नही होता..दरअसल हम आज भी मनुष्य को सभ्य नही कह सकते क्यों कि "सभ्य" शब्द कहने के लिये "सभ्य" शब्द की परिभाषा भी मालुम होनी चाहिये या कम से कम इतनी संतुष्टि तो स्वयं को होनी ही चाहिये कि "सभ्य" शब्द की आड़ मे कोई धोखा नही दिया जा रहा। लेकिन समस्या यहीं से शुरू होती है जब भी किसी पर या कहीं पर भरोसा करने की बात आती है तो वहाँ पर धोखा और झूठ भी होने की पूरी सम्भावना होती है बस अंतर ये होता है कि हम भरोसा कर लेते हैं विश्वास कर लेते हैं गैर पर अजनबी पर फिर उस गैर को अथवा अजनबी को अपना बनाते हैं उसके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं. फिर उस पर भरोसा करते हैं क्यों कि भरोसा किसी गैर पर या अजनबी पर तो किया नही जाता और फिर जैसे ही भरोसा कायम होता है धोखा मिलने की शुरुआत हो जाती है अब देखना ये होता है कि धोखा कितने अर्से बाद मिलता है ऐसा भी नही कि हर बार विश्वास के बदले धोखा मिले ही किंतु ऐसा बहुत ही कम देखने में आता है हाँ ये अवश्य पुख्ता तौर पर कहा जा सकता है कि पति-पत्नी का सम्बन्ध पूर्णरूपेण विश्वास पर आधारित होता है, इसका अर्थ ये नही कि अन्य रिश्तों पर  यकीन ना किया जाय। ऐसा नही है.. विश्वास करना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है इसे ऐसे समझ सकते हैं, मछली जल पर विश्वास करती है प्रत्येक प्राणी प्राणवायु पर विश्वास करता है ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। अंतर इस बात से पड़ता है कि विश्वास करने से पूर्व आपने कितनी जानकारी जुटाई फिर भी इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि भरोसे के बदले धोखा नहीं मिलेगा...दरआस सिक्के के ये दो पहलू हैं। विश्वास-धोखा किसी के हिस्से में प्यास आई किसी के हिस्से में जाम आया ।

निष्ठुर

राहों में अब मत बैठो तुम,
प्रेम का आंचल फैला कर,
निष्ठुर बन वो मुंह फेरेगा,
चल देगा तुमे ठुकरा कर,
खून भले तेरा है उसमें,
दर्द दिये फिर भी छल कर,
तुम दर्द लपेटे आँचल में,
जीती हो जल जल कर,
सींचा अपने प्राणामृत से,
बड़ा हुआ है अब पल कर,
वही लुकाठी पकड़ के लाया,
तुझे छोड़ने घर बाहर,
पाषाण ह्रदय वो बन बैठा,
पाला जिसको मर मर कर,
खैर उसी की माँग रही तू,
ह्रदय पे फिर पत्थर धर कर।

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

सूंचना-बैसवारी

लखनऊ मेट्रो शुरू करने की योजना पर काम चल रहा है। ठेठ बैसवारी में एनाउंसमेंट कुछ इस प्रकार होंगें:

** भईया हाथ जोड़ि कै बिनती है कि दरवाजन ते हटि कै ठाड़ होएओ, नहीं तौ कूचे जइहौ।

** पीली लाइन के पिछेहे ठाड़ रहेओ।

** गाड़ी केर पहिलै डिब्बा मेहेरियन खातिर है, ओके भीतर जउन चढ़ी ओका कायदे मां हउंका जाई और जुर्मानौ कीन जाई।

** दरवज्जा दाईं तरफ़ खुलत है। ओके ऊपर हाथ धरि कै न ठाड़ होएओ सरऊ।

** गाड़ी मां मसाला, चाय, बीड़ी, पान सब बर्जित हैं। कउनौ यो सब खात मिला तो वहिका पेल दीन जाई।

** आगे आवै वाला सटेसन आलमबाग है, हिंयाँ ते उत्तर प्रदेश बस सेवा के सिटी सटेसन खातिर उतर लीन्हेओ और सरऊ कायदे मां उतरेओ नाहीं तौ आगे बड़े-बड़े गड़हा  हैं, घुसमुड़ा जहिऔ ओहमां।

** बुजुर्ग चच्चा लोगन और मेहेरियन खातिर चुप्पे ते जगह दई दीन्हेओ वरना लपेटे मां आ जहियओ।

** गाड़ी मां च्वारन ते सावधान रहेओ। ससुर बहुत बढ़िगे हैं।

बुधवार, 8 जुलाई 2015

प्रभात फेरी..

ले लो मेरा सब कुछ मेरे लिये सब बेकार है,
गुर्दा दे दो लोकतंत्र को उसी को दरकार है,
आँख मेरी तुम लगा दो बेशर्म कानून को,
भारत की माटी में मिलाना मेरे सारे खून को,
मिट चुकी है विश्व में जो शान हिंदुस्तान की,
वापस लाना है उसे कीमत हो चाहे जान की,
बेहोश करने की कोई ना जरूरत है मुझे,
देश के दुश्मन से बे-इंतहा नफरत है मुझे,
इसलिये तुम खींच लेना धमनियाँ सारी मेरी,
राखी का धागा बनाना बहन जो लुट कर मरी,
रोक देना साँस मेरी तुम कफन से मूँद कर,
आबोहवा निर्मल बनाना हर गली में ढूँढ़ कर,
राह के गड्ढों में भरना राख तुम मेरी चिता की,
संवेदना जीवंत रखना इस तरह मेरे पिता की,
ठोकर ना लग पाये उन्हे राह में चलते समय,
लड़खड़ायें  जब भी वो तो हाँथ में मेरे थमें,
जोड़ कर डण्डा बनाना हड्डियों को मेरी तुम,
फिर तिरंगे संग लगाना प्रभातियों की फेरी तुम,
इस तरह शायद उरिण हो जाऊँ माँ के कर्ज से,
माँ भारती के पुत्र का नाता निभा दूँ फर्ज से।

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

सुरक्षा-हास्य-व्यंग

इंसान का टेस्ट भी अजीब है.......अधिकांश पुरुषों का दिन अखार से शुरू हो कर टी.वी.न्यूज़ पर समाप्त हो जाता है।
गाँवों में भी खबरची होता था जो एक समाचार पत्र खरीद कर अन्य लोगों को खबरें पढ़ कर सुनाया करता था।
खबरें सुना कर भी लोग अपना मनोरंजन किया करते थे।
समय के साथ इस शगल का लुत्फ लेने वालों की संख्या में इजाफा हुआ......और जैसे ही दहेज में ट्रांजिस्टर मिलने लगे....लोगों का रुझान अखबार की खबरों में समाप्त होने लगा....
अब तो गाँव की चौपाल पर ट्रांजिस्टर को घेर कर समाचार सुनते लोग। किंतु शहरों में समाचार पत्र रोज सवेरे लोग नाश्ते में लेते रहे....अखबार भी खबरो को चटपटी,रसीली,सनसनाती हुई..दिल दहलाने वाली बता कर खूब पैसा बटोरने लगे....
एक समय था जब लोगों को कन्या भ्रूण हत्या के बारे में अखबारों से पता चला कि, शहरों में विदेशी मशीने लगी है जो जन्म लेने से पहले ही ये बता देती हैं कि...पैदा होने वाला बच्चा लड़का है या लड़की...फिर क्या था इस चमत्कार को नमस्कार करने अधिकांश नवविवाहित जोड़े पहुंचने लगे पैथॉलोजी वालों ने खूब रकम काटी और फिर सरकार ने इस लिंग परिक्षण को  अपराध घोषित कर दिया ...इस खबर से अखबार वालों का तो कोई लाभ नही हुआ किंतु लिंग परिक्षण करने वालों ने चोरी से ये परिक्षण करना जारी रक्खा और चाँदी काटते रहे।
अचानक टेस्ट बदला...और दहेज हत्या .....मुख्य खबरों में शुमार होने लगी....फिर तो देश भर में दहेज हत्याओं की बाढ़ सी आ गई.दहेज हत्या.........और प्रेम हत्या की खबरों ने फिर से लोगों को चर्चियाने का अवसर प्रदान कर दिया.....हंलाकि, बीच बीच में अन्य खबरे भी खदबदाती रहीं...जैसे कि....चुनाव चकल्लस,किरकिटिया कमेंट्री,बाँकी सीजनल समाचार जैसे....होली,दिवाली,दशहरा,क्रिसमश के बारे में लोग पूरे वर्ष भर चाय के साथ मजे लेते रहे...अब देखने वाली बात ये है कि, सूंचना माध्ममों की पहली पसंद और खबरों के केंद्र में कौन रहा?  जी हाँ....
                         "स्त्री"
मतलब बिन स्त्री सब सून....
इस महान देश भारत में सदियों से स्त्रियों का शोषण होता आया है....कभी घूंघट की आड़ में कभी मान मनुहार लाड़ में....हमारे एक बहू बेटे वाले मित्र नें हमसे पूंछा......ताला किसके लिये होता है?  मैने कहा सज्जनों के लिये। वो मेरी बात से सहमत हुए...
फिर हमने पूंछा...घूंघट किसके लिये?  क्यों कि, हमारे विद्वान मित्र की बहू घूंघट करती है और वो इसके पक्षधर भी थे........
वो बोले सम्मान के लिये...और अपनी सुरक्षा के लिये....हमने पूंछा...सम्मान किसका और सुरक्षा किससे?किसकी?
मित्र कहने लगे...बड़ों का सम्मान और स्वयं की सुरक्षा.......अपने से बुज़ुर्ग और विद्वान मित्र का इतना सारगर्भित तर्क सुन कर मैंने कहा.......
अरे भाई, आपका ये सुझाव यदि देश के सैनिको तक पहुंचा दिया जाय तो  उनका कल्याण हो जाए......सारे सैनिक घूंघट करके जंग जीतते और सम्मान के साथ साथ सुरक्षा भी प्राप्त कर लेते....इतना सुनते ही मित्र का पारा हाई हो गया.....बोले-  तुम कहीं की बात को कहीं से जोड़ देते हो...
मैने कहा, ज़रा ये भी स्पष्ट कर दें कि, घूंघट करने से सुरक्षा कैसे सम्भव है? बिना उत्तर दिये वो तमतमाते हुए चले गये.....
मित्रों मैं उत्तर की प्रतिक्षा में हूँ.....

विस्मय..

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,
दीवारें हिलती पर्दों सी देख जरा ना घबराओ,

स्वर्णिम बादल सूरज घेरे किरणें कैदी हो जातीं,
परेशान सा जलता दीपक औ रोगी रोती बाती,
रुग्ण मनस हो चला हो जैसे अंधकार का प्रेत,
मुर्दों की फसलें बह जाती खाली रहता खेत,
चकित क्यूं होता चित्त चरित कुछ तो इसको समझाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ

खड़े हुए सब उसी जगह पर जहाँ से कल भागे थे,
शवों की हड्डी पकड़ के कहते हम तो कल आगे थे,
नित नित धूप जलाती चाँदनी चंदा संग ढलती है,
शहर नही है मरा हुआ यहाँ लाशे तक चलती हैं,
कौतुक मत जानो इसको ना जरा कहीं तुम भरमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ,

कितना सारा नियम बना औ तर्क-वितर्क बहुतेरे,
शब्द लब्ध भी हुए तो क्या मर्कट तो दुनियां घेरे,
काश जो होता मैं उस पल जीवन गीत सुना देता,
सूने से शहरों में साथी प्रीत की रीत चला देता,
भौचक हो क्या देख रहे इक बार मुझे भी अजमाओ,

विस्मय क्यूँ कर हुआ तुम्हे ये बात हमें तुम बतलाओ

सोमवार, 6 जुलाई 2015

फूल जो मिला किताब में.

खो गया था जो कभी कहीं,
फूल वो मिला किताब में,

खेलती थी साथ जो मेरे,
छुपती है वो अब हिजाब में,
मिलती है जो अब अगर कहीं ,
सवाल रहता हर जवाब में,

खो गया था जो कभी कहीं,
फूल वो मिला किताब में,

मुब्तिला है दिल बहुत मेरा,
महबूब के इश्क ए अजाब में,
आज सोचता हूँ बैठ कर,
क्या कमी हुई हिसाब में,

खो गया था जो कभी कहीं,
फूल वो मिला किताब में,

पता नहीं अभी तलक चला,
क्या मिला इश्क ए खिताब में,
पूँछता हूँ हाले ए दिल अगर,
कहा दिल नही बचा जनाब में,

खो गया था जो कभी कहीं,
फूल वो मिला किताब में,

रविवार, 5 जुलाई 2015

नेता

नेता जी मुस्कराये,
सबने देखा,
होंठो में खिची महीन रेखा,
चेहरा अजीब दिख रहा था,
उनका पुत्र ये सब सिख रहा था,
आखिर आने वाले कल का नेता है,
पिता पुत्र को विरासत देता है,
कुटिल मुस्कान,
छीना हुआ सम्मान,
साजिशों का बस्ता,
संस्कार सस्ता,
पुत्र भी मुस्करायेगा,
जब नेता बन जायेगा,

रविवार, 28 जून 2015

पगली

युग बदले पर तुम ना बदलीं,
हम भी पागल तुम भी पगलीं,

पायल धुन है वही पुरानी,
प्रेम रीत भी है अनजानी,
मन तो मेरा पिघल चुका है,
लेकिन तुम अब तक ना पिघलीं,
हम भी पागल तुम भी पगली,

सावन तो आता जाता है,
पपिहा पंचम सुर गाता है,
फिर भी ना जाने क्यूँ हमको,
ऋतुएं लगती नकली,
हम भी पागल तुम भी पगली,

बरखा कैसे जलन मिटाए,
बूँद बूँद तन मन सुलगाये,
बैरन बन गई जान हमारी,
अब निकली  तब निकली,
हम भी पागल तुम भी पगली।

शुक्रवार, 26 जून 2015

रिश्ता रिसता है

आओ चलो मर चुके रिश्तों को दफना दें,

साथ साथ साथ था,
रात मधुर बावरी सी,
महकता सा गात था,
आज हम विलम्ब से,
विदाई गीत गुनगुना दें,
आओ चलो मर चुके........

भावना भी सुप्त हुईं,
बातें खूब गुप्त हुईं,
चुगलियाँ भी मुफ्त हुईं,
हाँथ अब वो छोड़ चले,
किसे हम उलाहना दें,
आओ चलो मर चुके......

नेह डोर टूट गई,
बचपन की यादें भी,
दूर कहीं छूट गईं,
वो तो हमें भूल चुके,
हम भी उन्हे बिसरा दें,
आओ चलो मर चुके......

गुरुवार, 25 जून 2015

रीता बचपन

खेल खिलौने पढ़ना लिखना,
हँसना तक वो छोड़ चुका है,
सुबह से लेकर रात तलक,
बस काम से नाता जोड़ चुका है,

अब गाई चराई रमपलवा,
बापु सिधारेस स्वर्गलोक,
औ घरु मा माई करै सोकु,
पेटु का खाली भा गढ़वा,
अब गाई चराई रमपलवा,
है उमिर बरस बारा कै बसि,
नेकर ढीली लीन्हेस कसि,
नंगे पाँव जरैं तरवा,
अब गाई चराई रमपलवा,
गोरू ख्यातन मा घुसे जात,
लाठी लीन्हे नान्ह हाँथ,
लखेदि लिहिस भुरउ पड़वा,
अब गाई चराई रमपलवा,
जेठु घाम औ मुख मलिन,
दउरि रहा है गाँव गलिन,
स्वाचन मा खाय़ रहा हेलुवा,
अब गाई चराई रमपलवा।